चौथा अध्याय : चौथा दिन
(23.08.14)
आज दिन आ गया था बीजिंग से विदा लेने का। सुबह होटल
में नाश्ता करने के बाद सभी ने अपना लगेज निकाला और होटल से चेक आउट किया। मेरे
तकिये पर रक्त की कुछ बूंदे गिरी थी, उसकी सफाई
के लिए मुझे अलग से सौ यूआन देने पड़े। आज नीना को हम सभी से विदा भी लेना था। वह
बहुत भावुक लग रही थी, उसने सभी को अपनी तरफ से समुद्री पर्ल
का एक-एक हार दिया स्मृति चिह्न के रूप में और रेलवे स्टेशन तक वह खुद छोड़ने आई।
लगभग ग्यारह बज रहे होंगे। बीजिंग नान रेलवे स्टेशन से हमें बैठना था। शंघाई
पहुंचने के आठ-नौ घंटे की यात्रा तय करनी थी हाई स्पीड ट्रेन द्वारा। साथी लोग
बुलेट ट्रेन की चर्चा कर रहे थे, मगर वह बुलेट ट्रेन नहीं
थी। मुझे दो ट्रेनों में अंतर समझ में नहीं आ रहा था। शायद बंदूक से निकली गोली
(बुलेट) की तरह सरपट भागती होगी वह ट्रेन! हाई स्पीड ट्रेन की स्पीड कुछ कम नहीं
थी 200 किलोमीटर प्रति घंटा से कम नहीं। और बुलेट ट्रेन की स्पीड 300 किलोमीटर से
कम नहीं होगी। बीजिंग का रेलवे स्टेशन किसी एयरपोर्ट से कम नहीं होगा। सफाई का तो कहना ही क्या, एकदम
साफ-सुथरा। क्या मजाल, जो कहीं पर धूल के कुछ अंश दिख जाए।
बहुत ही बड़ा एरिया लिए हुए था बीजिंग नान रेलवे स्टेशन। जहां-तहां बड़ी-बड़ी
इलेक्ट्रोनिक स्क्रीनें। गाइड नीना पताका लिए भारतीय साध्वी की तरह सभी की एक जगह
इकट्ठे होने का निर्देश दे रही थीं। कहीं कोई दिक्कत न हो जाए,इसलिए वह बार-बार पासपोर्ट व सामान की निगरानी के लिए भी वह कह रही थी।
हमें अलविदा करने से पूर्व उसके चेहरे की मासूमियत,भाव-भंगिमा,वाक-चातुर्य और बंदर जैसी चपलता चाहकर भी आँखों के सामने से नहीं हट रही
थी। हमारा दल दो हिस्सों में बंट गया था, कम्पार्टमेंट -वन और कम्पार्टमेंट-टू में। सारे
दरवाजे स्वचालित। चेयर वातानुकूलित ट्रेन की तरह।वाशरूम साफ-सुथरे ,मगर महिलाओं व पुरूषों के लिए कॉमन। दोनों प्रयोग में ला सकते है। छोटे
बच्चों के डाइपर बदलने के लिए अलग से टेबल दी हुई थी वाशरूम में। बीजिंग से शंघाई
की दूरी 2000 किलोमीटर से कम नहीं होगी। जैसे-जैसे ट्रेन चलती जा रही थी, पीछे छूटते जा रहे थे खेत-खलिहान,कल-कारखाने और
बड़े-बड़े आलीशान भवन। मेरे मानस पटल पर छा जा रही थी,
ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त ओड़िया सीताकान्त महापात्र की कविता- "चाँदनी रात
में रेलयात्रा"। चाँदनी रात तो नहीं थी,दिन था। मगर
दृश्य पटल वही था , जो उस कविता में था।
द्रुतगामी
ट्रेन जा रही थी
काली
देवी की तरह
डिब्बे
के हिचकोले खाते झूलों में
नींद
में सोए हुए थे कुछ आदमी
भिन्न-भिन्न
गाँव ,शहर ,बस्ती के
जा
रहे थे अलग-अलग गाँव को,शहर को
जीवन
के दिन-रात की तरह
यह
धरती कितनी सुंदर
खिड़की
के शीशों से
पेड़,क्यारी,तालाब,कुमुद
दौड़कर
भाग रहे थे सभी पीछे-पीछे
हमारे
भय ,हमारे आँसू
हमारी
व्यथा,अपनों को खोने का दुख
हमारी
प्रगल्भता,हमारे शून्य,हमारे आँसू और हमारा खून
दौड़कर
भागे जा रहे थे कल के अंधेरे में
इतिहास
के पन्नों में ,और वहाँ से मिथक में
ट्रेन
चलती जा रही थी ,चलती जा रही थी
दिग्वलय
पर चंद्रमा दौड़ता जा रहा है , दौड़ता जा रहा है
मगर
मुझे नींद नहीं ।
अधिकतर
साहित्यकार अपनी कुर्सी में बैठे ऊंघ रहे थे। सुस्ता रहे थे। काश, मेरे देश की
संस्कृति में यह शामिल होता कि भारतीय रेलों में कहीं पेन से लिखे हुए नाम या
अश्लील चित्र तथा डिब्बे में कोई असामाजिक तत्व,भिखारी आदि नजर
नहीं आते। देश की संपति की हिफाजत हमारे दिनचर्या में शामिल हो जाती। डॉ मीनाक्षी
जी पीछे वाली सीट पर बैठी हुई थी, बिस्किट के पैकेट मेरी तरफ
बढ़ाते हुए बोली, "लीजिए, आप भी
कुछ लीजिए।" उनकी आवाज सुनकर मेरी तंद्रा भंग हो गई। मैंने देखा ,सामने वाली सीट पर डॉ चौरसिया अपने पास में बैठे हुए सह-साहित्यकारों को
बैगा जाति के आदिवासियों तथा अपनी उपलब्धियों के बारे में बता रहे थे यह कहना नहीं
भूल रहे थे,'मेरी एक पुस्तक राजकमल प्रकाशन,दिल्ली से प्रकाशित हुई ,"प्रकृतिपुत्र :बैगा:, आप उसे अवश्य पढ़िएगा।' लोकेश बाबू अपनी कहानी "जश्न" सुना
रहे थे कि कामरेड कभी मरता नहीं है। उधर डॉ॰ जय प्रकाश मानस और गजलगायक मुमताज़ आगे
की सीट पर बैठकर आंखे मूंदे सभी की बातें सुनते हुए मंद-मंद मुस्करा रहे थे। झिमली
पटनायक अपने पास बैठे सभी लोगों को नाश्ता करवा रही थी। उधर निमिष श्रीवास्तव मेरे
कैमरे के मेमोरी कार्ड से लेपटॉप में फोटो कॉपी कर उसका एक अलग फोल्डर बना रहा था, ताकि मैं अपने ग्रुप को व्हाट्स अप्प में भेज सकूँ। मुझे रह-रहकर याद आ
रहे थे सीताकान्त महापात्र, अवश्य हावर्ड यूनिवर्सिटी में
उन्होंने यह अनुभूति प्राप्त की होगी,वरना कैसे कविता में
प्रस्फुटित होता :-
द्रुतगामी
ट्रेन चलती जा रही थी,चलती जा रही थी
दिग्वलय
पर चंद्रमा दौड़ता जा रहा है, दौड़ता जा रहा है
मगर
मुझे नींद नहीं।
अखबारों में तो चर्चा जरूर हो रही थी कि भारत बुलेट
ट्रेन खरीदेगा, चीन ओर जापान की तरह वह भी तेज रफ्तार से भागेगा,हमारे
प्लेटफॉर्म भी इतने ही सुंदर,सुदृढ़ और सुघड़ होंगे तथा किसी
को कुछ भी कहने की जरूरत नहीं पड़ेगी। चीन और भारत पड़ोसी देश ,मगर कार्य-संस्कृति में इतनी विभेदता ! इस अंतर को जानने के लिए मैंने
मानसजी से आग्रह किया," आपके मत में ऐसे क्या कारण हो
सकते हैं, सब-कुछ समान होने के बावजूद भारत और चीन के विकास
दर में इतना फर्क क्यों है ? भारत की जीडीपी 4 या 5% जबकि
चीन में डबल डिजिट डेवलपमेंट?"
मानस जी का उत्तर था लोकतन्त्र को लेकर," हम
आजाद देश के वासी है। चीन में फ़्रीडम कहाँ? यहाँ तक कि
अभिव्यक्ति पर भी अंकुश। सोशल मीडिया पर ताला लगा हुआ है यहाँ। फेसबुक ,ट्विटर ,यू-ट्यूब सब पर प्रतिबंध। अगर आप चलाना भी
चाहते हैं तो यहाँ की सरकार से इजाजत लेनी होगी। आपको एक वीपीएन नंबर देगा जो आपके
क्रिया-कलापों पर निगरानी रखेगा। अब आप सोचो , अपने यहाँ
मीडिया तय करती है कि कौनसी पार्टी सरकार
बनाएगी ,जबकि चीन में सरकार तय करती है कि कौनसा मीडिया
ग्रुप काम करेगा। दोनों देश की सरकारों में बुनियादी अंतर है यह। " कहकर डॉ॰
जय प्रकाश मानस ने दीर्घश्वास ली।
उधर किनारे की सीट पर डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर बाहर की ओर
झांक रहे थे। उनके पास की सीट खाली थी । मोटे-मोटे लेंसों वाला चश्मा ऊपर कर रुमाल
से आँखें पोंछते हुए मेरी तरफ देखकर कहने लगे, " बैठो,
इधर बैठो।" मैं तो खुद उनके पास
बैठकर उन्हें कुछ सुनना चाहता था। इधर-उधर की कुछ बातें करते हुए मैंने उनसे पूछा," सर, कैसा लग रहा है ?"
"सब कुछ ठीक है और अच्छा रहता,अगर चीन के
किसी गाँव का परिदर्शन कराया जाता। तुम कहो न,मानस जी से,हमें चीन के किसी गाँव को दिखाने का प्रबंध करावें। वहाँ की गरीबी ,भूखमरी,बेरोजगारी ,सामाजिक
अपराध सब देख सकेंगे। केवल बीजिंग व शंघाई देखने मात्र से चीन का आकलन करना एक
तरफा होगा,यह गलत है। लेकिन यह बात सही है, चीन विकास के पीछे पागल है एकदम।"
पास में बैठे उद्भ्रांत जी ने उनकी बात पर अपनी सहमति
जताते हुए कहा, " कोई भी देश अपने आध्यात्मिक और सामाजिक मापदण्डों को नजरअंदाज कर
अगर विकास कर भी लेता है तो वह विकास की परिभाषा में नहीं आता है। शिकागो के धर्म-सम्मेलन
में स्वामी विवेकानंद ने इस बात की पुष्टि की थी कि जीवन का सही उद्देश्य
आध्यत्मिक,सामाजिक,सांस्कृतिक और नैतिक
मूल्यों को मानते हुए देश व समाज का सर्वांगीण विकास करना है।"
बहस अपने चरम की ओर जा रही थी। कहीं-न-कहीं,डॉ॰खगेन्द्र
ठाकुर और उद्भ्रांत जी का मन के किसी कोने में छुपा हुआ अपना देश-प्रेम चीन के
विकास को सही विकास मनाने से इंकार कर रहा था। मैंने डॉ खगेन्द्र ठाकुर के कुछ कहने
से पूर्व उनसे निवेदन किया," सर,
आप सीधे मानस जी से चीन के गाँव देखने के लिए क्यों नहीं कह देते ?"
"मैंने तो मानस जी से कहा था कि चीन के किसी
राजनेता से भी हमारे टीम की मुलाक़ात करवा देते तो इस आयोजन में और चार चाँद लग
जाते और हो सकता तो चीन के गाँव भी देख पाते ......." डॉ खगेन्द्र जी ने दुखी
मन से अपनी बात रखी।
मैं नहीं समझ पा रहा था कि वह नेता लोगों से क्यों
मिलना चाहते हैं। हो न हो, जरूर कोई रहस्य छिपा होगा! शायद या
तो, वह चीन की सरकारी मशीनरी और कम्युनिस्ट तंत्र को नजदीक
से जानना चाहते हों। या फिर, भारत के लोकतन्त्र का संदेश उन
तक पहुंचाना चाहते हो । बात तो उनकी सही थी, मगर
अंतरराष्ट्रीय आयोजनों के समन्वयक की भी अपनी सीमा होती है । किस तरह डॉ जय प्रकाश
मानस ने नौ-नौ सफल आयोजनों को रायपुर,थाइलेंड,मारीशस,उज्बेकिस्तान,संयुक्त
अरब अमीरात,वियतनाम, श्रीलंका और बीजिंग में करवाकर हिन्दी भाषा को
अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपने खुद के खर्चे पर आगे लाने का अनुकरणीय कदम उठाया है!
उनकी पीड़ा किसने देखी है? जहां सब इधर-उधर घूमने में व्यस्त रहते हैं,वहाँ
उनको सबकी चिंता सताए रहती है। किसी को कुछ दिक्कत तो नहीं हो रही है। एक परिवार
के मुखिया की तरह उन्हें सम्मेलन के दौरान अपनी भूमिका अदा करनी पड़ती है। कुछ भी
हो जाने से मानसजी से पूछो, और इधर-उधर उन्हें खोजने की तांकझांक शुरू हो जाती
है। डॉ खगेन्द्र जी की सलाह मेरे मन-मस्तिष्क में द्रुतगामी ट्रेन की तरह तेजी से
सरपट दौड़े जा रही थी। मुझे लगा, वह इस सम्मेलन के ठोस परिणामों को देश के वर्तमान राजनैतिक
पटल पर सामने लाना चाह रहे हों।
बीच
में पड़ने वाले रेलवे स्टेशन पर जैसे ही ट्रेन रुकती,वैसे
ही मैं भी अपनी सीट बदल देता था। इस बार कुछ काव्य चर्चा हो जाए यह सोचकर,
मैं रुका महान दलित कवि असंगघोष के पास।हृष्ट-पुष्ट आकर्षक शरीर वाले असंगघोष अपना
प्रोफेशनल कैमेरा लिए खिड़की के काँच से बाहर के फोटो लेने में तल्लीन थे। वह सही
माने में टूरिस्ट लग रहे थे। स्लीवलेस टीशर्ट ,बरमूडा
पहने वह बहुत आकर्षक लग रहे थे। मगर कार्यक्रम के दौरान कुर्ता ,पाजामा
और सर पर लगे देशी साफा में उनकी छबि भारत के किसी गाँव के आभिजात्य जमींदार से कम
नहीं लग रही थी। मैंने उनका ध्यान भंग किया,"
घोष साहब ,क्या कर रहे हो ?
चीन के प्राकृतिक नजारों की फोटोग्राफी ?"
मुस्करा
कर कहने लगे वह ,"फोटोग्राफी मेरा शौक है और मैं तो एक प्रोफेशनल
फोटोग्राफर हूँ।"
फोटोग्राफी
का शौक उनके व्यक्तित्त्व से मेल खाता था। कैमेरे को पकड़ने की स्टाइल ,फोटोग्राफ
लेने के एंगल से पता चल रहा था कि वह एक चितेरे फोटोग्राफर है। कैमेरे को बंद कर
अपने कमर पर टंगे वेलेट में डालते हुए कहने लगे,"
माली जी , आपने "गुलामगिरी" पढ़ी है ?"
"
नहीं , कौन है लेखक ?"
"ज्योतिबा
फूले की। अगर नहीं पढ़ी है तो एक बार पढ़ लो। तुम्हारे सोचने का सारा ढंग बदल जाएगा
।बहुत ही क्रांतिकारी किताब है यह। नेट पर मिल जाएगी। सावित्री बाई फूले का तो नाम
सुना होगा ? ज्योतिबा फूले की पत्नी। हमारे देश की पहली शिक्षिका
थी वह।"
उन्हें
लगा कि जैसे मैं ज्योतिबा फूले को नहीं जानता हूँ। मगर उन्हें क्या पता,
कॉलेज में पढ़ते समय जोधपुर की ज्योतिबा फूले संस्थान का कभी सक्रिय सदस्य था। मगर
यह बात सच थी कि 'गुलामगिरी' के बारे में मैंने पहली बार सुना था।
"अवश्य
पढ़ूँगा,घोष साहब।" कहकर मैं सोचने लगा,
कभी मेरे मन में भी तो क्रांतिकारी विचार आया करते थे। मुझे याद हो आया,जोधपुर
के भीकमदास परिहार शिक्षा सेवा सदन का वह प्रांगण ,जहां
कभी भारत के बड़े-बड़े समाज सुधारक अपने व्याख्यान दिया करते थे। आर्य समाज के
संस्थापक स्वामी दयानन्द की विचारधारा से प्रभावित भूमि थी वह। क्या चीन में भी
ऐसे ही समाज सुधारक पैदा हुए होंगे?
डॉ॰
गंगा प्रसाद शर्मा ने भारत में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार पर बातचीत के दौरान कहा
था टियन'अनमेन स्केवयर पर,"
कभी पहले चीन में भी महिलाओं पर ऐसे ही अत्याचार हो रहे थे। चीन तो क्या,
सारे एशियाई देशों में यह होता था। जैसा आपने सुना होगा,'फोरबिडन
सिटी' यानि चीन के राजमहलों में महिलाओं के साथ क्या सलूक
होता था! उन्हें नंगा कर पाँवों को लकड़ी के पट्टों से बांधकर हरेम से लाया जाता था
राजा के शयनकक्ष में, किसी नौकर की पीठ पर लादकर। मगर जब चीन ने औरतों का
सम्मान करना सीखा, उन पर हो रहे क्रूर अत्याचार बंद किए तो उनका देश
विकासगामी हो गया। काश, हमारा देश भी ....." कहते-कहते वह रुक गए थे
जैसे भीतर से बुरी तरह आहत हो।
कवि
असंगघोष ने भी अपनी कविताओं के माध्यम से यही बात रखी थी,
हम सभी के सामने।
शाम
के पाँच बज रहे थे। ट्रेन उसी द्रुतगामी वेग से चल रही थी। उद्भ्रांत जी,सेवशंकर
अग्रवाल ,राजेश श्रीवास्तव,राजेश
मिश्रा,सूरज बहादूर थापा,गिरीश
पंकज और मेरा ओड़िशा ग्रुप सभी अपनी-अपनी बातों में मशगूल थे। एक दूसरे की तरफ खाने
के पैकेट बढ़ाए जा रहे थे। यही तो सही मकसद है,आपसी
भाईचारे का,देश-प्रेम का और सही धर्म-निरपेक्षता का। बीच-बीच में
कुछ कहकहे अवश्य सुनाई दे रहे थे, मथुरा कलौनी जी और डॉ जे॰आर॰सोनी जी के। आनदेव बंधु
सामने की सीट पर सिर टिकाए नींद लेने का प्रयास कर रहे थे। देखते-देखते साँझ होने
लगी थी। ट्रेन की वही रफ्तार। बाहर आसमान में अंधेरा पसर रहा था।
दूरदराज़
टिमटिमाती रोशनी झलसने लगी थी बिजली के खंभो पर। ऐसा लग रहा था मानो छोटे-छोटे
तारे टिमटिमा रहे हों किसी आकाश-गंगा में। हाथ-घड़ी का काँटा आठ की तरफ सरकने लगा
था। बड़े-बड़े इलेक्ट्रोनिक स्क्रीनबोर्ड सामने दिखाई देने लगे थे। स्पष्ट था शंघाई
हाँग कुइयांग स्टेशन आने वाला है। सभी ऊपर रैक में पड़े अपने सामानों की तरफ
निगाहें डालने लगे।
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