दूसरा
अध्याय: दूसरा दिन (21.08.14)
आज का दिन अत्यंत ही
महत्त्वपूर्ण था। सम्मानित होने वाले साहित्यकारों के लिए तो ऐतिहासिक समय था। कल
की थकान भरी यात्रा की वजह से सभी लोग देर सुबह तक सोए हुए थे। ऐसे सोते-सोते एक या
दो बज गया था, इसलिए सुबह आठ बजे तक तो किसी की भी नींद नहीं खुली थी।
शायद मैं और डॉ॰ चौरसिया ही सबसे पहले तैयार होकर नीचे होटल के बरामदे में टहल रहे
थे। कान की दिक्कत के कारण मन अवसादग्रस्त व बहुत भारी लग रहा था। जिस होटल में हम
लोग रुके हुए थे, उसके नियमानुसार कंप्लीमेंटरी नाश्ता साढ़े
सात बजे तक समाप्त हो चुका था। पत्रकारिता के क्षेत्र में
"सृजनगाथा-सम्मान" से सम्मानित होने जा रहे "प्रवासी संसार" के संपादक राकेश पाण्डेय जी तमतमाए हुए होटल के बाहर इधर-उधर टहल रहे थे।
हमें देखते ही कहने लगे," यह किस तरह का प्रोग्राम है? न कोई चाय की व्यवस्था है, न किसी अल्पाहार की। भई, हद हो गई। क्या मैं पहली बार चीन आया हूँ? चाय तक
नसीब नहीं.... ?"
शायद वह इंगित करना चाहते थे
कि कहीं टूर मैनेजर रिक्की मल्होत्रा पैसे बचाने के खातिर तो ऐसा नहीं कर रहे हैं।
मगर हम लोगों ने कोई उत्तर नहीं दिया, शायद उन्हें
हमसे प्रत्युत्तर की आशा थी। उनकी नाराजगी की बात एक कान से दूसरे कान, दूसरे से तीसरे कान में पहुँचते-पहुँचते मानस जी के कानों में पड़ी। उन्होंने
धैर्यपूर्वक मेरी तरफ देखते हुए कहा,"यह देश समय का
पाबंद है। अगर आप समय पर नहीं उठोगे तो किसका कसूर है? क्यों
कोई आपका इंतजार करेगा? सबको अपना-अपना काम है। राकेश जी का
चिल्लाना व्यर्थ है।"
चाय-पानी पीना इतनी बड़ी
बात नहीं थी,जितनी बड़ी बाद समय के
पाबंदी की थी। समय की कीमत का पहली बार मूल्यांकन हुआ यहाँ। हमारी तरह शायद ये लोग
अकर्मण्य व आलसी नहीं है,
तभी तो उनके विकास का पहिया तेज रफ्तार से चल रहा है। बिना कुछ नाश्ता पानी किए
धीरे-धीरे साहित्यकार लोग कान्फ्रेंस हाल में एकत्रित होने लगे। महिलाएं भारतीय
परिधान में खूबसूरत लग रही थीं। झिमली पटनायक ने जगन्नाथ संस्कृति को इस
अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन की एक अमिट यादगार बनाने के लिए ओड़िशी या भरतनाट्यम नृत्य
में पहने जाने वाली विश्वविख्यात संबलपुरी पाट वाली साडी पहनकर पुरी से अपने साथ
लाई हुई जगन्नाथ,बलभद्र
और सुभद्रा की लकड़ी से बनी छोटी मूर्तियों को टेबल पर सजाकर मन ही मन जयदेव के गीत-गोविंद
के श्लोकों का उच्चारण करती हुई सभी प्रतिभागियों को जगन्नाथजी का सूखा प्रसाद
बांटने लगी। कार्यक्रम कुछ ही क्षणों में प्रारम्भ होने जा रहा था। स्वयंसेवक अपने-अपने
कामों में लगे हुए थे। सेवशंकर और मुमताज़ बैनर लगा रहे थे,डॉ
सुधीर शर्मा माइक टेस्टिंग का काम देख रहे थे। प्रोग्राम के संचालन का सारा
दायित्व उनके कंधों पर था। सभी टेबलों पर मिनरल वाटर की बोतल,
खाली कॉपी और पेन रखी हुई थी। इस सभा के अध्यक्ष डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा कान्फ्रेंस
हाल में पधार चुके थे। मानस सर ने बहुत पहले ही उनके बारे में विस्तृत जानकारी दी
थी। हिन्दी के बहुत बड़े विद्वान और 'साहित्य
शिरोमणि सम्मान'
और 'तुलसी सम्मान'
से सम्मानित लेखक डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा
ने लखनऊ विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में ड़ाक्टरेट की उपाधि के साथ-साथ नेट
प्रवीणता प्राप्त एवं यूजीसी फैलोशिपधारक हैं। बीस से ज्यादा कृतियों के रचियता भी
हैं वह। ईरान में हिन्दी शिक्षण के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान दिया
है।संप्रति वह भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के अधीन संचालित हिन्दी चेयर के अंतर्गत
गुयांगडोंग अंतर्राष्ट्रीय भाषा विश्वविद्यालय,गुयाङ्ग्जाऊ, चीन में हिन्दी के प्रोफेसर हैं।
उनके साथ में थी चीन की एक संभ्रांत महिला पियोंग किपलिंग।वह बीजिंग यूनिवर्सिटी
में हिन्दी की एसोसिएट प्रोफेसर हैं।बिना किसी खास औपचारिकता के भोपाल के
युवाछात्र निमिष श्रीवास्तव की सांगीतिक प्रस्तुति के साथ यह उदघाटन सत्र प्रारम्भ
हुआ। डॉ॰सुधीर शर्मा एक मंजे हुए मंच संचालक और मैं उनका सहायक। तालिका के अनुसार
कार्यक्रम आगे बढ़ता जा रहा था। जैसे-जैसे नाम बुलाए जा रहे थे ,वैसे-वैसे साहित्यकार मंच की ओर आ रहे थे और वैसे-वैसे मैं सम्मान पत्र,शाल और श्रीफल उन्हें देते जा रहा था। कला, साहित्य,
संस्कृति और भाषा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाली युवा
विभूतियों को सम्मानित करने के तारतम्य में कथा लेखन के लिए भिलाई के ख्यात कथाकार लोकबाबू को 'लाईफ
टाईम अचीवमेंट' सम्मान, भोपाल के
युवा कथाकार राजेश श्रीवास्तव, साहित्यिक पत्रकारिता के
लिए 'प्रवासी संसार' के संपादक दिल्ली
के राकेश पांडेय, शोधपरक आदिवासी साहित्य सृजन के लिए
डिडौंरी, मध्यप्रदेश के डॉ. विजय चौरसिया, अनुवाद के लिए तालचेर, ओड़िशा के दिनेश कुमार
माली अर्थात मुझे व भुवनेश्वर की कनक मंजरी साहू तथा कविता लेखन के लिए दुर्गापुर
की डॉ बीना क्षत्रिय को 11-11 हजार रुपए की नकद धनराशि, प्रशस्ति पत्र, शाल व श्रीफल प्रदान कर संस्था
के सर्वोच्च सम्मान ‘सृजनगाथा सम्मान-2014’ से सम्मानित किया जा रहा था। सभी अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहे थे।
मुझे मेरी कंपनी महानदी कोलफील्ड्स लिमिटेड का लोगो व कॉर्पोरेट गीत याद आ रहा था-
" हम है कोल इंडिया, कोल इंडिया हम/ अंधेरे से खोज लाते
हम,उजाले खुशियों के"। 'सृजनगाथा
सम्मान' पाकर मुझे लगने लगा जैसे मैं भी एक बड़ा आदमी बन गया
हूँ किसी सेलिब्रिटी की तरह और मुझे यह रिकोग्नीशन पाकर आत्म-संतोष होने लगा कि
मेरा अनुवाद कार्य को हिन्दी साहित्यकारों ने स्वीकार किया है।
डॉ॰जयप्रकाश मानस को अनवरत नौ अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
सम्मेलन के सफल आयोजन, नवोदित रचनाकारों को लेखन कर्म आगे लाने के
प्रोत्साहनस्वरूप किए जा रहे स्वैच्छिक सार्थक प्रयासों एवं हिन्दी साहित्य में
अतुलनीय योगदान के लिए सभी प्रतिभागियों की ओर से झिमली पटनायक और सेवा शंकर
अग्रवाल ने शाल व श्रीफल प्रदान कर
सम्मानित किया।
सम्मेलन के उद्घाटन एवं रचनाकारों के अंलकरण के
पश्चात विमोचन समारोह में डॉ जसवीर चावला की लघुकथा संग्रह ‘शरीफ़ जसवीर’, डॉ विजय कुमार चौरसिया की शोधपरक पुस्तक ‘प्रकृतिपुत्र
: बैगा’, उद्भ्रांत का आलोचना संग्रह ‘मुठभेड़’, डॉ. राजेश श्रीवास्तव का कहानी संग्रह
‘इच्छाधारी लड़की’, डॉ जे. आर.
सोनी की पुस्तक ‘दीवारें बोलती हैं’, गिरीश पंकज का उपन्यास ‘गाय की आत्मकथा’, दुर्गापुर की बीना क्षत्रिय का कविता संग्रह ‘एहसास
भरा गुलाल’, डॉ जय प्रकाश मानस का कविता संग्रह ‘विहंग’, दिनेश कुमार माली की अनूदित पुस्तक ‘ओड़िया भाषा की प्रतिनिधि कहानियाँ’मथुरा कलौनी की नाट्य कृति 'कब तक
रहे कुँवारे', श्रीमती नीरजा द्विवेदी का बाल कथा संग्रह ‘आलसी गीदड़’ का विमोचन किया गया। इसके अतिरिक्त, पत्रिकाओं में
कृष्ण नागपाल द्वारा संपादित दैनिक ‘राष्ट्र (विशेषांक)’, डॉ॰सुधीर शर्मा द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका ‘छत्तीसगढ़
मित्र’, गिरीश पंकज की पत्रिका ‘सद्भावना
दर्पण’,राजेश मिश्रा की पुस्तिका ‘चुनौती:
क्राइम रिपोर्टिंग की’, धनराज माली द्वारा संपादित
सामाजिक पत्रिका ‘माली दर्शन’ के
विमोचन के साथ-साथ डॉ. राजेश श्रीवास्तव/डॉ.सुधीर शर्मा
द्वारा संपादित सम्मेलन स्मारिका ‘चीन में हिन्दी’ का भी लोकार्पण हुआ।
अब
बारी थी सभा के मुख्य आकर्षण ,डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा के सम्बोधन की। उन्होंने कहा,
" मुझे चीन में आए हुए लगभग एक साल हो गया है। आप लोग जो साहित्य में निवेश
कर रहे है,वह कभी व्यर्थ नहीं जाएगा।ऐसे लोग बिरले ही होते हैं,जो साहित्य में निवेश करते है। वरना लोग अपनी प्रॉपर्टी बनाते है,घर खरीदते हैं,कार खरीदते हैं या किसी कंपनी में पूंजी निवेश करते हैं। आप लोगों की
साहित्यिक अभिरुचि,ऊर्जा ,उमंग व प्रेम
देखकर मुझे अत्यंत ही खुशी हुई है। आपका यह प्रयास दो देशों की संस्कृति व साहित्य
के बीच सेतुबंध का कार्य करेगा। मैने चीन से तीन चीजें सीखी है ,बस इतना ही अंतर है चीन और भारत में। पहला, भारत में
स्त्रियों का सम्मान नहीं है, जबकि चीन में उनका सम्मान किया
जाता है। आपने देखा कि गाइड से लेकर होटल में बैरे तक सारे कार्य स्त्रियाँ करती हैं और अपने को सुरक्षित अनुभव करती हैं,जबकि भारत में ऐसा नहीं है। दूसरा, भारत में जाति-प्रथा
चरम पर है। प्रेम-विवाह के माध्यम से हम सामाजिक विकारों को दूर कर सकते है। तीसरा, समय की पाबंदी में चीन का पूरा-पूरा
ध्यान रखता है।" उनका सम्बोधन जारी
था।
समय
के ध्यान की बात तो सुबह-सुबह नाश्ता नहीं मिलने के कारण पता चल चुकी थी,जबकि कुछ साहित्यकार मन ही मन भुनभुना
रहें थे,कि चीन वालों को कम से कम हमारे आतिथ्य के बारे
सोचना चाहिए था ,अगर हमें थोड़ा विलंब हो गया तो कौनसा पहाड़
टूट गया? अगर ये लोग भारत आते तो हम मेहमान नवाजी में पीछे
नहीं हटते। किसी साहित्यकार की भावनाओं की बात थी। मगर विकास के पथ पर
भावनाओं का स्थान कहाँ? अगर आपने गलती की हैं, तो आपको भुगतना पड़ेगा डॉ॰ शर्मा
के अनुभव मुझे सटीक और सही लग रहें थे।
"भारतीय-संस्कृति
की बड़ी-बड़ी बात कर लो, मगर
यथार्थ यही है कि नारियाँ यहाँ असुरक्षित अनुभव करती हैं। भारत में जहाँ महिला आई॰
ए॰ एस अधिकारी अपने आपको सुरक्षित अनुभव नहीं कर सकती है तो वह पब्लिक में गाइड व
होटल रिसेप्शनिस्ट के कार्य सुरक्षा की भावना के साथ कैसे कर सकती है? मीडिया के द्वारा इतना हाइलाइट करने के बाद भी क्या रेप में किसी तरह कि
कमी आ सकी? शायद नहीं? कारण क्या है? मानसिकता का अभाव है और मानसिकता का सीधा संबंध संस्कृति से है अर्थात
सांस्कृतिक सुधार ही मानसिकता में परिवर्तन ला सकते है। इसके अतिरिक्त, भारत में बहुत बड़ा महिला श्रम
ऐसे ही व्यर्थ पड़ा रहता है। देश के विकास
में वह हिस्सेदार नहीं बन पाता है। जी॰ डी॰ पी के उत्थान में महिला श्रमिकों का
समुचित व सुरक्षित उपयोग जरूरी है। देश को विकसित करने का सीधा सरल फार्मूला तो
यही है, एक देश,एक जाति,एक धर्म। जाति हो भारतीय,धर्म हो राष्ट्रधर्म।भारत
के शास्त्र तो 'वसुधैव कुटुबकम' की बात
करते है,फिर छोटे-छोटे खेमों,संप्रदायों,सीमाओं,प्रांतीयता तथा भाषावाद में बाँट कर क्या इस
उक्ति को यथार्थ कर सकते है? अगर हमें वैश्विक विकास चाहिए
तो धर्म, जाति-पांति के बंधनों से ऊपर उठ कर सोचना होगा।
सोते शेर के मुह में कभी शिकार आया है?" सभी ने डॉ॰
शर्मा के सम्बोधन का जोरदार तालियों से स्वागत किया।
मगर
मंच पर बैठे गिरीश पंकज व उद्भ्रांत जी आपस में कुछ बात कर रहे थे। शायद उन्हें अध्यक्ष
महोदय का भाषण पसंद नहीं आया। कुछ बात तो अवश्य थी,जो उनके दिल को लगी। उद्भ्रांत जी अपने उद्बोधन में अपने आपको रोक नहीं
सके और कहने लगे,"मुझे अध्यक्ष महोदय के भाषण से बहुत
दुख पहुंचा है।भले ही,चीन ने आर्थिक विकास किया हो,मगर हम भी कुछ ज्यादा पीछे नहीं है। आज भी हमारी संस्कृति और आध्यात्मिक
मूल्यों का लोहा सारी दुनिया मानती है। दुनिया में ऐसा कौनसा देश है,जहां क्राइम नहीं होता? मनुष्य तो क्राइम की कठपुतली
है। क्या चीन में क्राइम नहीं होता? क्या चीन में रेप नहीं
होते? रास्ते में गाइड नीना खुद बता रही थी कि आप अपने
सामानों की हिफाजत खुद करेंगे। अपने पासपोर्ट व लगेज का अच्छी तरह ध्यान रखिएगा,नहीं तो,अवसर पाकर कोई उठाईगिरा उसे गायब कर सकता है?'बी अवेयर फ्रॉम पिकपोकेटर्स',जीरो क्राइम वाली कोई
कंट्री है इस वर्ल्ड में?चीन में भी क्राइम है।"
कहते-कहते शायद वह कुछ ज्यादा भावुक हो गए। भाषा तो सधे हुए आलोचक की थी। उनके
मुंह से कुछ कटु भाषा निकाल पड़ी," देश आपको अपनी गलती
के लिए कभी माफ नहीं करेगा।चीन की प्रतिनिधि पियोंग किपलिंग हमारे देश के बारे में
क्या सोचेगी?"
डॉ॰शर्मा, भले ही, मंच पर
हल्की-हल्की तालियों के माध्यम से मानो उनकी बात का समर्थन कर रहे हो, मगर उनके दिल को बहुत कष्ट हुआ,अपने अनुभव को सहज
भाव से सबके समक्ष रखने के लिए । मैं जानता हूँ कि वह एकदम निर्दोष थे। मुझे तो
उनमें ज्यादा देश-प्रेम नजर आया,क्योंकि उनका लक्ष्य भी देश
का उत्थान था। वह किसी के दिल को चोट पहुंचाना नहीं चाहते थे। उनके कहने का
उद्देश्य केवल हमारे देश की ज्वलंत समस्याओं को उस मंच के माध्यम से उजागर कर एक
आव्हान करना था उनके समाधान के लिए। मेरे विचारों से डॉ॰खगेन्द्र भी सहमत थे ,जब मैंने आयोजन समाप्त होने के बात उनकी प्रतिक्रिया जाननी चाही।
डॉ॰
सुधीर शर्मा ने मंच संचालन के दौरान इस बात को अच्छी तरह संभाल लिया था कि डॉ॰
गंगा प्रसाद शर्मा हमारे आदरणीय अतिथि है।उन्हें अपने विचार रखने की स्वतन्त्रता
है, भले ही, आप उससे सहमत हो या नहीं हो।अगर आप अपनी असहमति जताना चाहते भी हैं तो
मीटिंग खत्म होने के बाद अपनी बात रख सकते है।ऐसा कहते हुए उन्होंने अगले वक्ता के
रूप में आदरणीया डॉ॰ रंजना अरगड़े जी को आमंत्रित किया। गुजरात विश्वविद्यालय की
हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ॰ अरगड़े ने डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा की बातों से अपनी सहमति
जताई।
"
हमारे देश की महिलाएं आज भी असुरक्षित अनुभव करती है। जबकि,कल ही रात को बीजिंग में मैंने होटल से
खाना खाकर लौटते समय लगभग साढ़े ग्यारह के आस-पास अपने छोटे बच्चों के साथ यहाँ की
महिलाओं को जाते देखा तो मुझे लगा कि यहाँ की महिलाओं को कोई खतरा नहीं है, और न हीं कोई डर। क्या हमारे हिंदुस्तान में ऐसा संभव है?"
फिर
से अपनी बातों को घुमाते हुए संभल कर उद्भ्रांत जी को ओर देखते हुए चीन की विदेश-नीति
की ओर इंगित करते हुए वह कहने लगी,"मगर एक बात अवश्य है कि जितना समय हमें दिल्ली से बीजिंग आने में
लगा, उससे भी कम समय ड्रेगन को अरुणाचल प्रदेश की सीमा तक
पहुँचने में लगता है।" कहकर उन्होंने एक दीर्घश्वास ली।
और
अगले वक्ता थे सुविख्यात वरिष्ठ आलोचक डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर। उन्होंने एक अत्यंत
सुलझे हुए वक्ता की तरह किसी भी विवादास्पद कथन को स्पर्श किए बगैर अपना भाषण
"हिन्दी का बाजार : बाजार की हिन्दी" विषय तक ही सीमित रखा। उन्होंने
हिन्दी पत्रिकाओं व पुस्तकों के प्रकाशन में आने वाली अड़चनों का ब्यौरा देते हुए
कहा, "सही मायने में, हमारे यहाँ पाठकों का अभाव है। बहुत ही कम लोगों की अभिरुचि है पुस्तकें
पढ़ने में। प्रकाशक हिन्दी लेखकों से पैसे लेकर पुस्तकें प्रकाशित करते हैं। हिन्दी
साहित्य को जो बाजार मिलना चाहिए था,वह अभी तक मिल नहीं सका।
हिन्दी साहित्य को एक विपुल बाजार चाहिए,मगर साहित्य की भाषा
बाजारू नहीं होनी चाहिए।" कहते हुए अपने चश्मे की फ्रेम में से झाँककर श्रोताओं
की ओर देखने लगे,"मुझे याद आई रूस के ताशकंद दौरे की
बात। वहाँ रूस के राष्ट्रपति गर्बाचोव के किसी प्रोग्राम में मुझे कम्यूनिस्ट
पार्टी की ओर से जाने का मौका मिला था। मैंने वहाँ देखा कि एक दुकान पर बहुत लंबी
भीड़ लगी हुई थी। पूछने पर पता चला कि उस भीड़ का कारण किसी लेखक की नई पुस्तक का
रिलीज होना था और फिर मालूम चला कि देखते-देखते एक ही दिन में दो चार लाख प्रतियाँ
बिक चुकी थीं और हमारे देश में ऐसा संभव? प्रकाशक कितनी
प्रतियाँ निकालेगा,उसका भी पता नहीं चलता है लेखक को।
प्रिंटिंग की कैसेट तो प्रकाशकों के पास रहती है और आजकल तो ई-बुक का जमाना आ गया
है। पुस्तकों का प्रकाशन कम होने लगा है। कुछ पुस्तकें निकलती भी हैं तो उनके दाम
इतने ऊँचे कि कोई पाठक इच्छा होने पर भी खरीदना नहीं चाहता।" डॉ॰ खगेन्द्र
ठाकुर की सारी बातें यथार्थ धरातल का प्रतिपादन कर रही थी।
अंतिम
वक्ता के रूप में पियोंग किपलिंग को आमंत्रित किया गया। उसने अपना वक्तव्य
प्रारम्भ किया।
"मुझे
आप सभी से मिलकर अत्यंत हर्ष हुआ। मैंने हिन्दी सीखने के लिए भारत सरकार से
संचालित केंद्रीय हिन्दी निदेशालय,आगरा में एक साल का कोर्स किया और फिलहाल बीजिंग विश्वविद्यालय में हिन्दी
अध्यापन का कार्य कर रही हूँ। आप सभी लोगों को मैंने सुना ,मुझे
बहुत अच्छा लगा। और ज्यादा अच्छा होता,अगर आप लोग चीनी भाषा
सीखते और हम चीनी लोग हिन्दी। तो वह दिन दूर नहीं जब दोनों देश अपने विपुल साहित्य
संसार व संस्कृतियों के सूक्ष्म पहलुओं को आसानी से समझकर उन्हें विस्तार देने के
साथ-साथ अक्षुण्ण रख पाते। मैं मेरे देश की दूसरी राष्ट्रभाषा हिन्दी समझती हूँ।.........
मुझे सुनने के लिए आप सभी का धन्यवाद।
"
बहुत
ही शुद्ध हिन्दी बोल रही थी वह प्रोफेसर। हिन्दी को चीन की दूसरी भाषा सुनकर सारे
साहित्यकारों के चेहरे पर रौनक आ गई थी। सभी ने उसके संभाषण का ज़ोरदार तालियों से
स्वागत किया था। एक विदेशी महिला का एक साल में हिन्दी भाषा सीखकर धारा-प्रवाह
बोलना किसी अचरज से कम नहीं था। काश, हम भी चीन के केंद्रीय निदेशालय में जाकर उनकी भाषा सीख पाते! चीन की
संस्कृति तो हमारे देश की संस्कृति है। गौतम बुद्ध को आज भी चीन उतना ही मानता है, जितना शायद कभी भारत ने माना होगा। हमारे देश के साथ चीन के आर्थिक ,राजनैतिक,सामाजिक,सांस्कृतिक
संबंध तो पुरातन काल से है। इस प्रकार के आयोजनों से इन संबंधों को और ज्यादा
पुष्ट किया जा सकता है। डॉ जे॰ आर॰ सोनी
के धन्यवाद ज्ञापन के साथ यह प्रथम सत्र व दूसरा सत्र समाप्त हुआ। सभी कान्फ्रेंस
हाल से जैसे बाहर निकले तो ऐसा लग रहा था मानो ऑक्सफोर्ड या हावार्ड जैसे
विश्वविद्यालय में किसी महान प्रोफेसर का विश्वबंधुत्व पर लेक्चर सुनकर बाहर निकले
हो। सभी के चेहरे पर एक अलग गाम्भीर्य और मानवता की मुस्कान स्पष्ट दिखाई दे रही
थी। खाने का समय भी हो चुका था। सुबह से तो सभी भूखे थे। दोपहर का भोजन उसी 'गंगा' होटल में लेने के बाद शुरू होती है बीजिंग
-दर्शन की कहानी। डॉ गंगा प्रसाद शर्मा हमारे साथ थे ,मगर
कार्यवश पियोंग किपलिंग हमसे विदा ले चुकी थी।
पहला
दर्शनीय स्थान था हमारे लिए टियन'अनमेन स्केवयर। चालीस हेक्टेयर में फैला हुआ दुनिया का सबसे बड़ा स्केवयर।
चीन की हृदयस्थली। शुरु से पीपल्स रिपब्लिक का इतिहास देखा है इसने। चेयरमेन माओ
का मार्बल से बना मेमोरियल हाल यही है। पश्चिम में पीपल्स ग्रेट हाल, पूर्व में चीनी इतिहास का संग्रहालय और उत्तर में चीन के राजाओं का महल
" फॉरबिडन सिटी'। सन 1926 में चीन के महान लेखक लू-शून
ने लिखा था इस टियन'अनमेन स्केवयर पर हुए नृशंस हत्याकांड के
बारे में , "खून का कर्ज जितना देरी से अदा होगा, उसका ब्याज उतना ही ज्यादा होगा।"
एक गाइड से जब हमने इसके इतिहास के बारे में
जानना चाहा तो उसने हमें बताया," .... वरसेली संधि की जापान को दी जाने वाली रियायतों जैसी खतरनाक
शर्तों के खिलाफ जब दिनांक 4 मार्च 1919 को इस स्केवयर में तीन हजार विद्यार्थियों
ने विरोध किया था।....... ब्रिटिश और
फ्रेंच की सेनाओं में पाइप लाइन का काम करने के लिए भेजे गए हजारो-सैकड़ों चीनी
मजदूरों ने विद्रोह कर दिया । सरकारी दफ्तरों में घुस गए सारे विद्रोही, जिन्हें सेना ने भून डाला। ....... 1976 में झाऊ एनियाल की मृत्यु पर
रोने वालों की भीड़ उमड़ पड़ी थी इस स्केवयर में।...... लोकतन्त्र की नई विचारधाराओं
का जन्म हुआ, 'फॉरबिडन सिटी' के किनारे। और तो और, सन 1989 में चीनी सरकार में
सुधार की धीमी प्रक्रिया, स्वतन्त्रता के अभाव और व्याप्त
भ्रष्टाचार के खिलाफ लाखों लोगों ने आवाज उठाई तो सरकार ने मार्शल लॉं लागू कर
दिया। टेंटों पर टेंक चले,मशीनगनें चलीं। हजारों लोग मौत के
घाट उतार दिए गए। सही संख्या तो शायद ही किसी को पता हो। स्केवयर के उत्तर में हर
सुबह मिलटरी के नियमानुसार झण्डा फहराया जाता है और शाम होते ही उतार लिया जाता
है।"
इतना कहने के बाद
शायद गाइड भावुक होकर रूआँसा हो गई। कितना खूनी इतिहास था इस स्केवयर का! जब मैने
उससे विस्तार से बताने का आग्रह किया तो वह कहने लगी," आप सभी नजदीक
आइए। आज पहले दिन हमारी बीजिंग-यात्रा
की शुरुआत 'टियन'अनमेन चौक' से होती है, जिसने चीन की राजनीति को एक नया
मोड प्रदान किया। बीजिंग यूनिवर्सिटी के हजारों विद्यार्थियों और युवकों के
विद्रोह का केंद्रबिन्दु बनकर 3-4 जून 1989 को टियन'अनमेन चौक अचानक ही
दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गया था। ये वे दिन थे जब सारी दुनिया में राजनैतिक
परिवर्तन हो रहे थे,कम्यूनिस्ट कट्टरवाद तथा लोकराज की मांग के रूप में। रूम में 'ग्लास्नोस्त तथा प्रेस्तोइका' ने कम्यूनिस्ट कट्टरवाद का चेहरा
बदल दिया था। चीन में इस वर्ष उनके प्रसिद्ध वैज्ञानिक 'फंग-ली-सी' ने चीन के हाकिमों को एक पत्र
भेजा था, जिसमे उसने वी-सिंग-सेंग को रिहा करने के लिए कहा था और इस पत्र पर
बाहर बस रहे 51 चीनी विद्वानों ने अपने हस्ताक्षर किए थे परंतु चीनी हाकिमों ने
इसका कोई उत्तर नहीं दिया था और लोकतन्त्र की यह मांग बीजिंग यूनिवर्सिटी के
विद्यार्थियों और युवकों तक पहुँच गई थी। 30 मई 1989 को 'केन्द्रीय कला संस्था' के विद्यार्थियों ने लोकतन्त्र
की देवी का 30 फुट ऊंचा बूत बनाया, जो अमेरिका के 'स्टेचू ऑफ लिबर्टी ' के साथ मिलता था और इस चौक में विद्यार्थियों ने लगातार मुजाहरे
शुरू किए थे। पहले-पहल पार्टी में इस सब कुछ के बारे बड़ा गहरा वाद-विवाद पैदा हुआ, परंतु फिर मार्शल लॉं लगा दिया
गया और 4 जून को इन विद्यार्थियों के ऊपर हमला बोल दिया गया। शहर में या कहीं और
इसकी कोई प्रतिक्रिया न हो, इसके लिए तीन लाख फौज तैयार की गयी और उन्हें हुक्म दिया गया कि
किसी प्रकार की विद्यार्थियों की विरोधी क्रांति की इजाजत या अनुमति न दी जाए। 'टियन'अनमेन चौक' में 35 ट्रकों व बुलडोजर ने इस कारवाई में भाग लिया। पलों में लाशों
के ढेर लग गए। पहले-पहल पश्चिमी समाचारो पत्रों ने बताया कि तीन हजार विद्यार्थी
इस कारवाई में मरे व जख्मी हुए। बाद में चीनी सरकार ने केवल 23 विद्यार्थियों की
मौत की बात स्वीकार की और यह भी कहा की पाँच हजार सिपाही जख्मी हुए थे और 150 की
मृत्यु भी हुई, जिससे यह सिद्ध किया गया कि विद्यार्थियों ने व युवकों ने भी
सिपाहियों पर हमले किए थे। इस घटना के कुछ दिन पश्चात ही 21 विद्यार्थी नेताओं को
गिरफ्तार किया गया और कुछ को मार भी दिया गया था।"
पहली बार मुझे एहसास हुआ, विद्यार्थी-विद्रोह की ताकत का।
भारत में मण्डल आयोग की आरक्षण संबन्धित नीतियों के खिलाफ उस समय अर्थात 1988-89
में ( जब मैं जोधपुर एमबीएम कॉलेज के दूसरे वर्ष का छात्र था) आंदोलन चल रहा था।
विद्यार्थी अपने शरीर पर केरोसिन डालकर आत्म-दाह कर रहे थे,मगर सरकार के कानों पर जूं नहीं
रेंग रही थी। कॉलेज बंद कर दी गई थी। प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के पुतले
जलाए जा रहे थे। जैसा दमन चीन में हुआ,वैसा ही दमन भारत में भी। क्या विद्यार्थी-शक्ति राजनैतिक चेतना को
नए मुखौटे नहीं पहन सकती ? बहुत सारे सवाल जेहन में चल रहे थे। तभी मुझे ओड़िशा की
रक्तरंजित दयानदी याद आने लगी कलिंग युद्ध के समय की। याद आने लगा पश्चाताप
में डूबा सम्राट अशोक और धौलगिरि में लाशों के ढेर। कितनी समानता थी भारत और चीन
के राजतंत्र में! शायद बीजिंग के राजा को कोई शोक नहीं हुआ,तभी तो, वहाँ के एक
विद्यार्थी ने 1989 की घटना के बारे में लिखा था," चीन
के इतिहास में एक नया पन्ना खुलने वाला है। टियन'अनमेन
स्केवयर हमारा है। और हम कसाइयों का यहाँ रहने नहीं देंगे।"
'टियन'अनमेन स्केवयर' की घटनाओं के
बारे में जानने के लिए मैंने जब पुराने कुछ भारतीय लेखकों के संस्मरण भी पढ़े,जिसमें लेखिका
डॉ वनिता की "मेरी चीन यात्रा" में संग्रहीत इस बर्बर घटना पर
गिरधर राठी द्वारा अनूदित 'पेई-ताओ' की कविता "ऐलान" मेरे ध्यान का केंद्र बनी।जो आपके समक्ष है:-
शायद आ चुकी है आखिरी घड़ी
मैंने नहीं छोड़ी कोई वसीयत-
सिवाय एक कलम के-
जो मेरी माँ के लिए है।
मैं कोई नायक नहीं
नायक विहीन इस युग में
मैं होना चाहता हूँ सिर्फ एक आदमी
निस्पंद क्षितिज
बाँट रहा है दो पांतों में
जीवितों-मृतकों को
मगर मैं चुनूँगा केवल आकाश
मैं नहीं टेकूंगा घुटने जमीन पर
क्योंकि तब हत्यारे दिखते हैं कद्दावर
छेंकते मुक्ति की हवा के झोंके
नक्षत्रों जैसे गोली के छिद्रों से
फूट पड़ेगी एक
रक्तात भोर''
यही ही नहीं, इस पुस्तक में एक और कविता थी,जो चीन के
तत्कालीन समाज में हो रहे उथल-पुथल की तरफ ध्यान आकृष्ट कर रही थी, जिसमें उसने
एक पीढ़ी की आवाज बुलंद की है। गिरधर राठी द्वारा अनूदित चीन के बौद्ध कवि "शु-चिड़" ने माओ की सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान हुई धर-पकड़ में जेल भेजे गए
उसके रिश्तेदारों में माओ के माँ की मृत्यु से मर्माहत कविता 'टियन'अनमेन स्केवयर' की स्मृति को
फिर से जागृत कर रही थी:-
''मैं नहीं
करूंगा शिकायत
की क्या-क्या बीती मुझ पर।
बर्बाद हो चुकी जवानी,
बदरंग हो चुका विवेक,
बे नींद अनगिनत रातों की
दर्द भरी यादें।
एक पर एक अनेक मतवाद
ढका चुका मैं।
एक पर एक अनेक जंजीरें
तोड़ चुका मैं,
बचा है जो अब मेरे दिल में
वह रेगिस्तान है अनंत........
लेकिन मैं खड़ा हुआ हूँ सीना ताने,
खड़ा हूँ अमित क्षितिज के विस्तार में,
कोई भी किसी भी तरीके से
दबा नहीं पाएगा मुझे फिर दुबारा।
अगर वह मैं होता, 'शहीदी' मजार के भीतर
लेटा हुआ,
मेरे संगे-कब्र की लिखावट पर काई,
अगर वह मैं होता लोहे के सरियों में बंद,
करता हुआ जिरह हथकड़ियों से बेड़ी से,
अगर वह मैं होता, बदहवास बेनूर,
करता हुआ प्रायश्चित अपने गुनाहों का,
अगर वह मैं होता,अगर वह केवल
होती मेरी निजी यातना-अभागापन-
शायद मैं कर चुका होता मुआफ़,
मेरे आँसू और मेरा आक्रोश
हो सकते थे कभी शान्त।
मगर उन बच्चों के बापों के वास्ते,
ताकि हम आइंदा कांपे नहीं
उन चुप उलाहनो के सामने
जो उठते आते हैं
तमाम यादगारों से,
ताकि हम आँख न चुराएँ
सड़क के आवारा गृहविहीन लोगों से,
ताकि वे मासूम औलादें
सौ बरस बाद इस कयास में न डोलें
की क्या था उसका अर्थ-उस इतिहास का
जो हम छोड़ गए थे उनके लिए,
अपनी मातृभूमि के इस कलंक की खातिर,
आसमान की पाक हस्ती की खातिर,
अपनी इस राह के ईमान की खातिर
मांगता हूँ
सच्चाई।''
गाइड
नीना पूरे ग्रुप को अपने साथ ले जा रही थी। पूर्व पुलिस महानिदेशक महेश द्विवेदी
अपनी धर्मपत्नी के साथ फोटो खिंचवा रहे थे। बीच-बीच में डॉ॰ चौरसिया और मैं फोटो
खिंचवाने के लिए टपक पड़ते थे, कभी चीनी लोगों के साथ तो कभी हमारे ग्रुपवालों के साथ। धोती-कुर्ते में
डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर तिरछी टोपी पहिने व्हील चेयर पर बैठे किसी मारवाडी सेठ या किसी
दिग्गज भारतीय नेता से कम नहीं लग रहे थे। कभी सरदार जसवीर चावला जी, तो कभी राकेश पांडे जी, तो कहीं डॉ सुधीर शर्मा, तो कहीं कनक मंजरी साहू चीन के लोगों के साथ फोटो खिंचवाने में लगे हुए
थे, मानो चीन और हिन्द एक की परिवार की दो शाखाएँ हों। हमने
भी फोटो खींचवाने में कोई कमी नहीं रखी।
वहाँ डॉ॰ गंगा प्रसाद शर्मा साहब से भी बात करने का मौका मिल गया। कुछ इधर -उधर तो
,कुछ व्यक्तिगत बातें। बहुत ही सुलझे विचारों के थे वह। उनके
मन में देश के विकास की एक तड़प थी। चीन से दो साल पहले आजाद होने वाला हमारा देश
उससे बीस साल पीछे क्यों ? मुझे तो बीस साल से ज्यादा पचास-साठ
आगे लगा चीन। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है,जब आप विदेश में होते हैं
तो आपको अपना देश बहुत याद आने लगता है। जब मैंने पूछा,"
यहाँ तो आपका बहुत ज्यादा वर्कलोड होगा?"
उन्होंने
मुस्कराते हुए कहा,"
कोई खास वर्कलोड नहीं।केवल हफ्ते में दो तीन क्लासेज लेनी पडती है।"
"
और आपकी सेलेरी ?"
मैंने बात आगे बढ़ाई।
वह
कहने लगे,"
पर्याप्त वेतन मिलता है।सरकार से कोई शिकायत नहीं। उलटा सोचना पड़ता है, पैसे कैसे खर्च किए जाए ? कहाँ खर्च किए जाए ?"
मैंने
बहुत ही कम ऐसे आत्म-संतोषी आदमियों को अपने जीवन में देखा।बात-बात में वह कहने
लगे, " मुझे इस बात का
दुख है कि आज उद्भ्रांत ने मुझे गलत समझा। मैंने ऐसी क्या देश-विरोधी बात कह दी कि
देश मुझे माफ नहीं करेगा।अब तुम्हीं बताओ, क्या प्रेम-विवाह
हमारी सामाजिक कुरीतियों को खत्म नहीं कर सकता? अगर यह बात
मैं किसी पुराने जमाने के आदमी से कहूँगा तो लाठी लेकर मुझे मारने आ जाएंगे।"
यह
बात पूर्णतया सत्य थी,कि जब
कोई व्यक्ति दो विभिन्न संस्कृतियों में रहता है तो उसकी मेधा अवश्य उन दोनों
संस्कृतियों का तुलनात्मक अध्ययन करती है और जो गुणदोष एक दूसरे में दिखने लगता है, वह प्रकट करने लगता है। मैं डॉ॰ शर्मा की बातों से पूरी तरह सहमत था। यह
तो सीधा-सा अंकगणित है, अगर घर में दो कमानेवाले हैं तो घर
की विकास दर तुलनात्मक ज्यादा होगी।
"
आपने कोई ऐसी देश-विरोधी बात नहीं की। उद्भ्रांत जी दिल के अच्छे इंसान है, मगर कभी-कभी आलोचना के चक्कर में जहां
आलोचना नहीं करनी होती है,वहाँ पर भी कर बैठते हैं। एक सशक्त
आलोचक जो हैं। यह सत्य है कि प्रेम-विवाह थोड़े ज्यादा अस्थाई होते जरूर है, मगर समाज के विलयीकरण का काम करते हैं। होमोजीनियस सोसाइटी का निर्माण
होता है प्रेम-विवाह से।" मैंने अपना पक्ष रखा।
इसी
सवाल को दूसरे रूप में बदलकर क्राइम रिपोर्टर राजेश मिश्रा की वह राय लेना चाहते
थे," राजेश जी,अगर आपको किसी रेप की सत्य-घटना का आँखों देखा हाल प्रस्तुत करना हो तो आप
कैसे रिपोर्टिंग करोगे? क्या आपकी संस्कृति रेप की घटना के
लिए आवरण का काम करेगी? या फिर आप तथ्यों को ट्विस्ट कर
रिपोर्ट पेश करोगे?"
इस
तरह के सवाल ने कुछ समय के लिए राजेश को पेशोपेश में डाल दिया। फिर काफी सलीके से
उसने उत्तर दिया मानो वह कोई आंखो देखी रेप की घटना का जिक्र करने जा रहा हो," मैं तो ठहरा क्राइम रिपोर्टर। कोई
लच्छेदार भाषा नहीं, कोई साहित्यिक भाषा नहीं। सीधे-साधे
शब्दों में तथ्यों को सामने रखते हुए अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करूंगा। उसमें कोई
संस्कृति काम नहीं आएगी।"
अभी
भी हम सभी टियन'अनमेन
स्केवयर के इर्द-गिर्द घूम रहे थे। डॉ ॰ शर्मा का चेहरा देखने से अभी भी लग रहा था
कि उनका मन अशांत है। डॉ॰चौरसिया की तरफ देखते हुए कहने लगे,"
चौरसिया साहब,एक बात बताइए,क्या छोटे
कपड़े पहनने से रेप बढ़ते हैं ?"
डॉ
चौरसिया निस्तब्ध। क्या उत्तर देते?कुछ समय के लिए ऐसा लगा मानो उन्हें कोई साँप सूंघ गया हो। फिर प्रकृत
अवस्था में आकर वह कहने लगे,"मेरे ख्याल से रेप का
संबंध छोटे कपड़ों से नहीं है। सवाल मानसिकता का है। अगर हमारे घर की बेटी ऐसे कपड़े
पहनती है तो कुछ नहीं, मगर दूसरे घर की लड़की या कोई महिला
अगर ऐसे कपड़े पहनती है या कुछ फैशन कर लेती है तो हमारी दृष्टि तिर्यक होने लगती
है। यह संकीर्णता नहीं तो और क्या है ?"
धीरे-धीरे
दार्शनिक बातें गंभीर सामाजिक मुद्दों में बदलती जा रही थीं और वे भी हमारे देश की
ज्वलंत समस्याओं के बारे में। साथ चलने वाले सभी चुपचाप। किसी के पास कोई उत्तर
नहीं। हमारे पास तो क्या ,भारत की सवा खरब जनसंख्या के पास में भी नहीं। जितनी रेप की घटनाओं का
प्रचार होता गया ,उतनी ही वे घटनाएँ बढ़ गईं। उससे भी बढ़कर, रेप के बाद लड़की को मारकर पेड़ से लटकाने की घटनाएँ भी सामने आने लगी।
जितनी ज्यादा धर्म-भीरुता , उतनी ज्यादा अश्लील घटनाएँ।
निर्भया हत्याकांड के बाद तो पता नहीं, अब तक कितने रेप हो
चुके होंगे? क्या रेप की बढ़ती घटनाओं पर काबू पाया जा सकता
है? डॉ॰ शर्मा की बहस ने हजारों सवाल मन में पैदा कर दिए।
बातों का सिलसिला धीरे-धीरे थमता जा रहा था।
सामने
की सड़क पार कर जाने पर दिखाई दे रहा था राजमहल,गुगोंग, जिसे प्रचलित भाषा में ' फॉरबिडन सिटी' के नाम से पुकारा जाता है। बहुत ही
महत्त्वपूर्ण जगह है चीन की। यहाँ से मींग और किंग साम्राज्य के चौबीस शासकों ने
लगभग पाँच सौ साल तक चीन पर शासन किया। डॉ॰ चौरसिया यह जानने को उत्सुक थे कि इस
राजमहल को 'फॉरबिडन सिटी' क्यों कहा जाता है? सवाल
एकदम सही था। जवाब नीना को छोडकर और किसके पास था? उसके
अनुसार, इस राजमहल की दीवारों को वहाँ की सामान्य जनता
स्पर्श तक नहीं कर सकती थी, इसलिए इन महलों की नगरी को 'फॉरबिडन सिटी' कहा जाता है यह प्राचीन राजाओं के
महलों और सभा-भवनों का समूह है। यह आयताकार दीवारों से घिरा है। इसमें 9995
कमरे हैं और यह विश्व का
सबसे बड़ा शाही महल है। इस महल की खूबसूरती देखते ही बनती है। अब इस प्राचीन महल को राजशाही
वस्तुएँ सम्हालने के लिए एक अजायबघर का रूप दे दिया गया है, इसीलिए सैलानी इसके
शाहाना दृश्यों को देखने दूर-दूर से आते हैं। इस वर्जित नगर की ऊंची दीवारें तथा
दरवाजे पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। इस महल के सात दरवाजे हैं, जिनमें से एक तबाह हो
चुका है तथा अन्य कई कहानियाँ व मिथक अपने से संभाले बैठे हैं, इस महल की छतें अभी
भी पीले रंग जैसी हैं जिन पर बनाए ड्रैगन, कुकनुस तथा अन्य
विशाल आकार के पक्षी बने नजर आते हैं। ऊंची मीनारों पर बड़े-बड़े सर्प, कमल के फूल, ड्रेगन इत्यादि
प्रतीकात्मक रूप में खुदे हुए नजर आते हैं। कभी बीजिंग में यह महल सबसे ऊंची इमारत
होता था, जहां राजा ऊंचाई पर बैठता था और उसे कोई वहाँ बैठे देखने में असमर्थ
होता था। जब भी कोई राजा इस महल को संभालता रहा, वह अपने शौक के मुताबिक
उसकी सजावट करता रहा। इस नगर को सुंदर गलीचों व क्लासिकल चीनी कला से अलंकृत किया
जाता है। इसके अंदर भी राजा का दरबार लगता था। इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया को
भी यहाँ की कला बहुत पसंद थी। अभी भी इसमें बहुत-सा राजशाही प्राचीन क्लासिकल
सामान,मुख्य पॉटरी,पोरसेलीन,पेंटिंग,ज्वेलरी और दीवार व हाथ घड़ियाँ,बुत्त,पुरानी घड़ियाँ, खिलौने, यंत्र, कला के नमूने, बड़ी- बड़ी डेगचियाँ व
बर्तन पड़े हुए हैं, जिन्हें राजा की अमीरी का प्रतीक समझा जाता था। इस
महल में मिंग और क्वींग राजतंत्रों के 24 सम्राटों ने 500 वर्षो तक निवास किया। महल के उत्तरी तियनानमेन गेट से
कुछ दूरी पर वूमेन गेट स्थित है, जो फारबिडेन सिटी का मुख्य द्वार है।बीजिंग में ही चीन
वास्तुशिल्प के अद्भुत नमूने के रूप में टेम्पल ऑफ हैवेन स्थित है,
जो 500
वर्ष पुराना है। शासक 'स्वर्ग-पुत्र' माने
जाते थे, जिन्हें असंख्य अधिकार प्राप्त थे। शासकीय सत्ता के
प्रतीक ड्रेगन और फोनिक्स का अर्थ राजा और रानी से था। सारस और कछुआ साम्राज्य की
दीर्घायु के सिंबल थे।
हमारी
घड़ी में चार बज रहा था। इस प्रदर्शनी के टिकट बंद हो चुके थे। इस राजमहल को हम देख
न सके, इस बात का मन में मलाल
गहराता रहा। मैंने डॉ॰ शर्मा से पूछा,"उस जमाने के
राजा-महाराजाओं की जीवन शैली कैसी रही होगी?"
वह
कहने लगे,"
मेरी जानकारी के अनुसार 'किंग'
साम्राज्य का राजा के एक वक्त के खाने में हजारों व्यंजन और रानी डौयागर कीकसी एक
बार में 108 प्रकार की सब्जियाँ बनाने का आदेश देती थी। सेक्स के बारे में सुनकर
तो आप चौंक जाओगे। मींग के काल में दस हजार से ज्यादा वैश्याएँ थी। राजा रात में
सिल्वर ट्रे में रखे ढेर में से एक टेबलेट चुनता था अपने हरेम में रखी वैश्याओं के
नाम में से। जिसका नाम आता था ,उसे नंगे बदन पर पीला कपड़ा
लपेटकर राजा के शयनकक्ष में भेज दिया जाता था। उसे नौकर की पीठ पर बांधकर लाया
जाता था,क्योंकि उनके पाँव बंधे हुए होते थे। केवल हिंजड़ों
को छोडकर कोई राजमहल में नहीं रह सकता था।भारत की तरह यहाँ भी औरतों पर
घोर-अत्याचार व शोषण होता था। सारे एशियाई देश ऐसे ही थे। जब चीन ने औरतों के
प्रति सम्मान की दृष्टि अपनाई तो देश विकास के पथ पर अग्रगामी होने लगा। अब आप ही
सोचो, कहाँ चीन हमारी तरह विकासशील देश था और कहाँ वह विश्व
की एक आर्थिक शक्ति बनने जा रहा है। मूलभूत तो यहीं परिवर्तन है दोनों सभ्यताओं
में। "
वहाँ
से हटने के बाद नीना हमें ले जाती है एक शानदार एक्रोबेटिक शो में।इतना बढ़िया शो
तो मैंने जीवन में पहली बार देखा। बैकग्राउंड में फिल्म और साउंड इफेक्ट में एक्रोबेटिक कलाकारों द्वारा किया जाने वाला
प्रदर्शन,उनकी
एकाग्रता और दक्ष अभ्यास बरबस हमें मंत्र-मुग्ध किए जा रहा था। शो जैसे ही खत्म
हुआ,हम लौट आए गंगा होटल में। पेटभर खाना खाने के बाद भी
मेरा मन भूखा था, अतृप्त था। मन ही मन वैचारिक उथल-पुथल चल
रही थी चीन के विकास के रहस्यों की खोज में। अवसर पाकर डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर के साथ
गप्पें मारने लगा। वह मेरे प्रिय लेखक भी थे। जिज्ञासावश मेरे मन से निकल पड़ा,"सर,आप तो कामरेड रह चुके हैं। कम्युनिस्ट
विचारधारा से ओत-प्रोत। आपके हिसाब से चीन के विकास के क्या कारण हो सकते हैं?"
डॉ॰
खगेन्द्र ठाकुर मेरी तरफ देखकर मुस्कराए। उन्हें
बोलने मेँ शायद कुछ परेशानी हो रही थी। गला खंखारते हुए कहने लगे,"देखो,चीन में
एक ही सरकार है। यहाँ वोटिंग नहीं होती है। कुछ ही लोग जो महासचिव के पद पर होते हैं,वे ही अपना वोट डाल कर प्रेसिडेंट का चयन करते हैं। यह भी विकास का एक
मॉडल है। माओत्से तुंग कभी पढा है आपने? शायद नहीं। यहाँ सारी संपति सरकार की है। यहाँ जनता का कुछ नहीं है। जनता
केवल श्रम करती है,पैसा कमाती है,
मजदूर की तरह जीवन गुजारती है। बीजिंग या शंघाई में भारतीय मुद्रा में 5-6 करोड़
में एक फ्लेट मिलेगा वह भी केवल 70 साल के लिए। यहाँ की कंपनियाँ भी पट्टे पर चलती
है चालीस साल के। और, बाहर की कंपनियों को ये लोग घुसने नहीं
देते हैं और अगर देते भी हैं तो केवल दस-पंद्रह साल के लिए। तब सोचिए, देश में विपक्ष नहीं,नागरिकों को अभिव्यक्ति की
आज़ादी नहीं तब विकास होगा ही होगा,जाएगा कहाँ ?"
डॉ
खगेन्द्र जी की कई बातें सिर के ऊपर से गुज़र रही थी,फिर भी मैं हाँ में हाँ मिलाए जा रहा था। न तो मैंने माओत्से तुंग की लाल
किताब पढ़ी थी और ना ही माओवाद की विचार धारा के बारे में ज़्यादा कुछ जानता था।
इतना जरूर जानता था कि माओवादी ह्त्या करते हैं,तोड़-फोड़ करते
हैं, रेलवे ट्रेक हटा देते हैं और पत्ता नहीं क्या-क्या करते
हैं।उनका मानना है कि क्रांति बंदूक की गोली से जन्म लेती है। शायद इसलिए माओत्से
की किताब को लाल किताब कहा जाता होगा। बंदूक की नोक पर सत्ता-परिवर्तन। मगर हमारे
देश में तो माओवादी को भी नकसलवाद की तरह आतंकवादी करार दिया जाता है। विचारों में
कितनी ताकत होती है,वे किताबों से निकलकर बंदूकों तक पहुँच
कर रक्त-रंजित कारनामों को जन्म देते हैं। मेरा मन फिर भी अशांत था। चीन वाले जब
भारत आते है तो भारत को गरीबों का देश कहते है। अंग्रेज़ लोग तो इससे भी ज़्यादा,भारत को कभी सपेरों और हाथियों का देश कहते थे। क्या हमारे पूर्वज कभी
तरक्की पसंद लोग नहीं थे? चीन की जनरेशन और भारत की जनरेशन मेँ
इतना अंतर क्यों? ऐसा ही एक सवाल,
मैंने बस में होटल की ओर जाते समय मानस सर से पूछा था। उन्होंने क्या कहा,जानते हो," दिनेश भाई,विकास
के अपने अपने मॉडल है। हमारे यहाँ से जितने लोग कम्युनिस्ट विचारधारा को सीखने के
लिए विदेश गए थे,एकाध को छोड़ कर सारे के सारे या तो अपना घर
भरने लगे या फिर अपना सामान्य जीवन जीने लगे। किसी के भी ख़ून में वह जज़्बा नहीं था
कि सत्ता पलट कर क्रांति का बिगुल फूँक सके। जब मजदूर थे तो मार्क्सवाद सूझता था। मगर जब जेब में पैसे आ गए तो
मार्क्सवाद की सिट्टी-पिट्टी गुम। मैं भी एक अच्छा संगठनकर्ता था, मुझे भी किसी जमाने में कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव बनाया जा रहा था
लेकिन ....." मुमताज़ की ओर इशारा
करते हुए कहने लगे",मुमताज़ से पूछ लो,वह तो बहुत पहले से हमारे साथ है।"
धीरे-धीरे
बहुत कुछ समझ में आने लगा था। नए-नए विचारों की उलझनों से बाहर निकलने का प्रयास कर
रहा था। तभी डॉ चौरसिया ने आवाज़ लगाई,"अरे भाई! बहुत समय हो गया है। कब तक बात करते रहोगे?"
मगर मेरा मन कहाँ मानने वाला था, मैने
संकल्प किया कि जब भी मैं चीन के बारे में अगर संस्मरण लिखूंगा तो माओत्से तुंग को
अवश्य पढ़ूँगा और माओवाद को जानने का भरसक प्रयास करूंगा।
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