Thursday, July 27, 2017

चीन जाने से पूर्व

अध्याय-पहला
चीन जाने से पूर्व

चीन की साहित्यिक यात्रा मेरे लिए अत्यंत ही महत्वपूर्ण थी। जैसे ही चार-पांच महीने पूर्व डॉ. जय प्रकाश मानसजी  की इस बार चीन में अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के आयोजन किए जाने की घोषणा अंतरजाल पर पढ़ी, वैसे ही मन ही मन ह्वेनसांग व फाहयान के  चेहरे उभरने लगे, दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक आश्चर्य चीन की दीवार आँखों के सामने दिखने लगी और चीन की विकास दर का तेजी से बढ़ता ग्राफ मानस-पटल पर अंकित होने लगा। याद आने लगा वह पुरातन भारत जिसमें ह्वेनसांग,शुयान च्वांग व फाहयान चीन से यहाँ पढ़ने आए होंगे,तब चीन कैसा रहा होगा और नालंदा व तक्षशिला विश्वविद्यालय के वर्तमान खंडहर खोज रहे होंगे अपनी जवानी को उनकी पुस्तक "ट्रेवल टू इंडिया" के संस्मरणों में। तब चीन विपन्न था। कांग यौवे ने चीन की दोहरी दुनिया का खुलासा किया था - चीन में चारो तरफ भिखारी ही भिखारी नजर आते थे,बेघर,वृद्ध,लावारिस रोगी सड़कों पर दम तोड़ते दिखाई देते थे। यह बहुत ज्यादा पुरानी बात नहीं है। सन 1895 के आस-पास की बात रही होगी। जबकि  सातवी शताब्दी ईसवी में ह्वेनसांग भारत अध्ययन के लिए आया था तथा उसने नालंदा  विश्वविद्यालय के अनूठी अध्ययन प्रणाली, अभ्यास और मठवासी जीवन की पवित्रता का उत्कृष्टता से वर्णन किया। दुनिया के इस पहले आवासीय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में दुनिया भर से आए 10,000 छात्र रहकर शिक्षा लेते थे, तथा 2,000 शिक्षक उन्हें दीक्षित करते थे। यहां आने वाले छात्रों में बौद्ध यतियों की संख्या ज्यादा थी। भारत से लौटे यात्री शुयान च्वांग को याद करते हुए वरिष्ठ कवि अरुण कमल ने अपनी कविता "जंगली बत्तखों वाला पैगोड़ा" में लिखा:- 
 ओ! महाभिक्षु यात्री शुयान च्वांग
आज मैं आया हूँ भारत के पाटलीपुत्र से
शताब्दियों बाद उसी नालंदा के पास का एक क्षुद्र कवि
स्वीकार करो मेरा प्रणाम
तुम्हारे कपाल की अस्थि चमक रही है
स्मरण कर अपने धूल-धूसरित दिन बुद्ध की धरती के
वे जंगली बत्तख जो एक शाम कभी उड़ते हुए आये 
फिर हर शाम आये
इतना शांत पवित्र था गगन यहाँ
इतनी हल्की पानी से छनी हवा

आज शताब्दियों बाद इस बार मैं आया हूँ
तुम्हारी उस यात्रा की उडी हुई धूल की तरह
कोई भी यात्रा विराम नहीं पाती यात्री के साथ
यात्रा का कोई निर्वाण नहीं
वे प्रांतर वे विटप वे तड़ाग पूछते हैं बारम्बार
वो यात्री फिर कब लौटेगा ?
वो छोड़ गया था अपना जल-पात्र यहीं।
शायद मेरे भीतर भी अरुण कमल का कवि जाग चुका था,चीन की धरती पर मुझे भी उसी अनूभूति को प्राप्त करना था,जो युगो-युगो पहले चीन और भारत के बीच कभी सौहार्द की रही होगी। यही ही नहीं, विश्व के जाने-माने दर्शनिकों में अरस्तू,चाणक्य,पाइथोगोरस की तरह मुझे चीन के कन्फ़्यूसियस ने भी बहुत आकर्षित किया था। उनकी एक कविता 'कन्फ़्यूशियस का ज्ञानोदय' किसी संस्मरण में पढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ था,जिसमें उन्होने लीत्से की कथा का पुनर्कथन किया है। इस कथा के साथ-साथ कन्फ़्यूशियस के दर्शन-शास्त्र पढ़ने व हयूयांग नदी को देखने की कल्पना मेरे मन में जागने लगी थी। पहली बार अनुभव किया कि किस तरह किसी देश का साहित्य उस देश के प्रति
आपके मन में जानने की उत्सुकता पैदा करता है। यह कविता आपको भी अवश्य प्रभावित करेगी:-
        ''एक दिन सुबह-सुबह कन्फ़्यूशियस
        ध्यान-मग्न अपनी धवल दाढ़ी सहलाता हुआ
        चला जा रहा था देहात में।
        तभी उसे टोका दो बच्चों ने
        चक्के दौड़ाते चले जाते थे जो :
        "आप जान पड़ता है, ज्ञानी हैं।
        क्या कुछ संदेहों का निवारण कर देंगे?"
        और वे एक के बाद एक
        प्रश्न यों करने लगे :
        ''इस हयूयांग नदी का उत्स क्या है?''
        ''दाने की खोज में निकले पंछी
        कैसे पहुँच जाते हैं सई-साँझ अनभटके
        फिर अपने नीड़ में?
        ''पश्चिम से क्यों नहीं उग सकता सूर्य? ''
         ''कैसे परख सकते हैं हम
         देवदारुओं की स्मरणशक्ति?"
          ''ताई हान गिरि की धवलता  
         कितने बरस की है?''

         ''चितकबरी गिलहरी के बदन की लकीरें
          गायब नहीं होती, क्यों ?
         "महान दीवार के नीचे दबे हुए
          कितने कंकाल हैं?"
          ''हिबिस्कस फूल है लाल,
          क्या इसीलिए है पृथ्वी में आग?"
          ''शहतूत के पत्तों में
          कहाँ छिपा रहता है रेशम?
           '' रात अगर माँ है, तो
           कौन है हाथी का पिता?''
           ''कहाँ भूल आया है नर
            पूंछ अपनी?''
           ''कितने दिन होते हैं
            मृतकों के वर्ष में?"
           "भूतों का वजन नहीं होता है,
            लेकिन क्यों?"
            खड़े हुए ज्ञानी का मुंह हुआ लाल,
            देखा यह और चल दिये बच्चे
            पहिये ढरकाते हुए।
            कन्फ़्यूशियस ने तब सोचा :
            ''तेन्सी और कुन्सी चेले मेरे
            कहीं मुझे देख न लें ऐसे में यहाँ पर
            व्यर्थ रहा कितने वयस
            जो मैंने बीता दी समूची
            लोगों को उत्तर सिखाने में।
            काश मैं होता महज गायक
            जैसे हिसयावों का
            जिसने दिया था मुझे प्रथम बार
            केबल आनंद। ''
            स्वगत यह कर कन्फ़्यूशियस
             लौट गया धीमे कदम रखना
             फिर अपनी मेज पर सुरा पीने।


कन्फ़्यूशियस ने तो भले ही अपनी अज्ञानता स्वीकार कर ली,प्रकृति के रहस्यमयी सवालों का जवाब देने के लिए और शराब पीने चला गया। मगर हम भी प्रकृति के इन सवालों का जवाब दे सकते हैं ? शायद नहीं,तभी तो हमारा दर्शन भी 'मृत्यु और परलोक', 'मृत्यु के बाद का जीवन' जैसे दार्शनिक सवालों के जवाब घुमा फिराकर देता है। गीता में अर्जुन के ऐसे ही सवालों पर कृष्ण कन्फ़्यूशियस की तरह क्या कहूँ या क्या न कहूँ, सोचकर अठारह अध्यायों की रचना करते  हैं, प्रश्नकर्ता की संतुष्टि के लिए। अतः मुझे जो आकर्षण कृष्ण में नजर आने लगा था, वही आकर्षण कन्फ़्यूशियस की तरफ भी खींचे जा रहा था। कन्फ़्यूशियस की उस अनुभूति के कंपन पाने के लिए चीन-दर्शन की अभिलाषा
मन में शेषनाग की तरह फन उठाने लगी थी। कन्फ़्यूशियस में कृष्ण दिखने लगे थे, मगर भाषा से ऊपर उठकर। यह बात तो अवश्य सच थी कि कन्फ़्यूशियस ने कभी संस्कृत नहीं पढ़ी होगी, तब उनके मन में जो कुछ जागरण हुआ होगा पक्का मौलिक होगा। ऐसे ही विचार मेरे मन में उठ रहे थे। एक और बात जो मुझे विशेष आकर्षित कर रही थी, वह थी चंद्रमा पर उतरने वाले पहले चन्द्रयात्री नील आर्मस्ट्रांग के उस कथन की,जिसमें कहा गया था,कि चंद्रमा से जल के अलावा अगर पृथिवी की कोई चीज साफ दिखती हैं, तो वह है चीन की दीवार। हजारों साल पूर्व मंगोलियन आक्रमण से अपना बचाव करने के लिए चीन वालो ने एक विराट विस्तृत दीवार अनेक घुमावों के साथ बनाई होगी उस जमाने में। चीन के सैनिकों की टुकड़ियाँ अपनी सीमा में विदेशी बर्बर आक्रांताओं को प्रवेश करने से रोक रही होंगी! इन सारी कल्पनाओं को यथार्थ में साकार करने का एकमात्र संयोग था चीन में आयोजित हो रहा यह नवम अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन। रायपुर की साहित्यिक संस्था सृजन-सम्मान तथा अन्य सहयोगी संस्थाएं सृजनगाथा डॉट कॉम,छत्तीसगढ़ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति,,वैभव प्रकाशन,प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान,,गुरु घासीदास साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के संयुक्त तत्त्वाधान में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी और हिंदी-संस्कृति को प्रतिष्ठित करने के लिए किये जा रहे प्रयासों और पहलों के अनुक्रम में इस बार 20 से 26 अगस्त 2014 तक चीन में आयोजित किया जा रहा था। विश्व के सारे देशों के बीच संवादहीनता की दीवार तोड़कर 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावना का विकास करना ही डॉ॰ जय प्रकाश मानस का पवित्र संकल्प था और इस यज्ञ में आहुति देने के लिए पधार रहे थे, भारत के कोने-कोने से कर्नाटक,गुजरात,बिहार,उतर प्रदेश,मिजोरम,ओड़िशा,छतीसगढ़,मध्यप्रदेश,के शीर्षस्थ रचनाकारों समेत नवोदित रचनाकर। कभी कामरेड रहे कम्यूनिस्ट विचार धारा से ओत-प्रोत विशिष्ट आलोचक व साहित्यकार डॉ॰ खगेन्द्र ठाकुर (पटना), विश्व-कवि लू-शून के समाजवादी दृष्टिकोण व दर्शन से प्रभावित हिन्दी के अन्यतम वरिष्ठतम कवि लेखक उद्भ्रांत जी (दिल्ली), शमशेर के काफी नजदीकी रही गुजरात विश्व-विद्यालय की हिन्दी की विभागाध्यक्षा डॉ॰ रंजना अरगड़े और महाराष्ट्र से डॉ॰ मीनाक्षी जोशी जैसी महान विभूतियाँ। इससे ज्यादा क्या सुखद क्षण हो सकते थे मेरे लिए! यह ही नहीं, मानस सर का व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा हैं कि अगर आपके अंदर थोड़ी-सी भी सर्जनात्मकता क्षमता है साहित्य के क्षेत्र में, तो वह किसी शक्तिशाली चुंबक की तरह अपनी तरफ खींचकर एक नई पृष्ठ भूमि, नया क्षितिज व नया वितान प्रदान करेगा और आप आसमान में उड़ने लगेंगे अपनी सारी ऊर्जा,क्षमता व शक्ति के साथ।
मैं तो केवल मेरी नई पुस्तक "ओडिया भाषा की प्रतिनिधि  कहानियां"  के विमोचनार्थ चीन जाने वाला था,मगर जाने के कुछ ही दिनों पूर्व मानस जी ने अनुवाद के क्षेत्र में उस कृति पर संस्था के सबसे बड़े सम्मान "सृजनगाथा -सम्मान" की घोषणा 'माली हो तो दिनेश जैसा'  शीर्षक जैसे अपने छोटे से आलेख में अपने फेस बुक की वाल पर कर दी। इतना बड़ा सम्मान मेरे लिए! मैं तो सोच भी नहीं सकता था। मैंने अपनी टिप्पणी अभिव्यक्त की, अपने आश्चर्य और खुशी के इज़हार के साथ। उनका प्रत्युतर था,"दिनेश ,सचमुच हकदार हो तुम। सृजनगाथा डॉट कॉम की नजरों में अनुवाद के क्षेत्र में तुम्हारे सिवा और कोई नहीं था।"
सम्मान ग्रहण करने के अतिरिक्त चीन के इस आयोजन में मेरे लिए दो आकर्षण बिन्दु और थे,डॉ खगेन्द्र  ठाकुर व विशिष्ट कविवर उद्भ्रांत जी से मुलाक़ात करना। साहित्य भंडार,इलाहबाद से अभी अभी प्रकाशित डॉ खगेंद्र जी का उपन्यास 'सेंट्रल जेल' ने मुझे इस कदर प्रभावित किया था कि मैं उनके भीतर झाँकने के लिए आंदोलित हो रहा था। स्वतन्त्रता सेनानी के रूप में कभी जेल की सलाखों के पीछे रहे साहित्यकार खगेंद्र जी का  देश-प्रेम, जेल के भीतर के तत्कालीन कैदियों की मनोदशा और अंतरकलह  कोई मार्क्सवादी आंदोलनकर्ता के सिवाय और कौन अपनी सुलझी कलम से अभिव्यक्त कर सकता है और अगर उस लेखक को नजदीक से देखने का अवसर मिले तो फिर क्या कहना! ठीक इसी तरह,  कुछ वर्ष पूर्व लखनऊ में आयोजित द्वितीय अंतर-राष्ट्रीय ब्लागर एसोसिएशन के विशिष्ट अतिथि रहे कवि उद्भरांत को मैंने सुन रखा था। उनकी काव्यात्मक शैली, साहित्य-प्रेम और लखनऊ के उमाबली प्रेक्षागृह में दिया गया सशक्त संभाषण मुझे बरबस आकर्षित कर रहा था। अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों के माध्यम से इतनी बड़ी-बड़ी हस्तियों व विभूतियों को नजदीक से जानने का अवसर मिलता हैं। उनकी सोच,रहन-सहन, विचारधारा सबसे परिचय हो जाता हैं कुछ दिन साथ रहने से। साहित्यिक रुझान के बारे में तो बहुत कुछ सीखने को मिलता है,साथ ही साथ उनके अंतरंग अनुभव व अनुभूतियों से भी अवसर मिलने पर साक्षात्कार हो जाता हैं।









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