Thursday, July 27, 2017

सातवाँ अध्याय: सातवाँ दिन (26.08.14)

सातवाँ अध्याय: सातवाँ दिन (26.08.14)


आज भारत लौटने का दिन। उद्भ्रांत जी का मन था कि विश्व-कवि लू-शून के घर और म्यूजियम का परिदर्शन करने का। लू-शून प्रेमचंद के समकालीन थे। उद्भ्रांत जी से प्रेरित होकर 20-25 साहित्यकार लूशून के अंतिम निवास स्थान और म्यूजियम देखने गए। जितना भव्य घर,उससे ज्यादा उनका म्यूजियम। उनके टेबल,लेख,किताबें,शयनकक्ष,लूशून की अपने मित्र-मंडली के साथ बैठी मोम की बनी जीवंत मूर्तियाँ। लू शुन की कोठरी के बारे में अरुण कमलजी की कविता अपने आप में यादगार हो उठती है,जिसे पढ़कर मुझे लू शुन की जिंदगी के बारे में जानने की उत्सुकता होने लगी थी। कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार थी:-  
लू शुन की कोठरी
बस एक आदमी भर जगह,एक कदम चौड़ी
खिड़की किनारे पतला सा बिस्तर बाहर अखरोट का पेड़
और सिरहाने एक छोटी सी मेज और लंबे शीशे वाला लैंप-
इतनी छोटी कोठरी से आन्टा इतना बड़ा देश
इतनी छोटी मेज पार फैलीं इतनी बड़ी कथाएँ
हर कथा ज्यों चीन का नक्शा ।
उनकी रिकोर्डेड आवाज सुनने के लिए भी सरकार ने शुल्क लगाया है। उद्भ्रांत जी के शब्दों में , अगर किसी लेखक को सही अर्थों में सरकारी सम्मान मिला है तो वह है लू-शून। विश्व की किसी भी सरकार ने शायद ही इतना बड़ा सम्मान किसी लेखक को दिया होगा। लू-शून के वहाँ से लौटते लौटते बारह बज गए थे।
शंघाई में हम जिस होटल में रुके थे ,वह थी 'होटल हॉलिडे इन एक्स्प्रेस'। होटल के सामने बस आ चुकी थी। सभी ने अपने सामान रखकर बस से जाते हुए पूर्व निर्धारित इंडियन रेस्टोरेन्ट में खाना खाकर सड़क के किनारे भावतोल वाली 'फेक' बाजार  से छोटी-मोटी खरीददारी किसी ने घड़ी तो किसी ने सूटकेस खरीदा। बहुत ज्यादा बारगेनिंग की जा सकती थी। मैंने भी दोनों बेटों के लिए दो जी-शॉक वाली घड़ियाँ खरीदीं।खरीददारी के शौकीनों का स्वर्ग है शंघाई। मॉर्डन फैशनेबल वस्तुओं की खरीदारी के लिए नॉनजिंग रोड और क्वाई रोड उपयुक्त है। जबकि सभी खरीददारी के लिए सिचुआन नॉर्थ रोड जाया जा सकता है।
अब बस का रुख पुडोंग एयरपोर्ट की तरफ। पौन घंटे का रास्ता था। एलिस ने एक चीनी गीत सुनाया और बदले में निमिष श्रीवास्तव ने उसकी पसंद - आमिरखान की हिन्दी फिल्म का गाना सुनाया। वह कहने लगी," जैसे इंडिया में चीन के हीरो जैकी शैन,ब्रूसली विख्यात है, वैसे ही चीन में इंडिया के हीरो शाहरुख खान व आमिरखान प्रसिद्ध हैं। चीन में आमिर खान की फिल्म 'थ्री ईडियट' तथा शाहरुख खान की फिल्म 'डॉन' बहुत चली। इंडिया की हिरोइनें बहुत खूबसूरत होती हैं,खासकर उनका गोल-गोल चेहरा और बड़ी-बड़ी आँखें,नाक-नक्श,सुगठित शरीर सुंदरता का एक मानक पैमाना है।"
पुडोंग इन्टरनेशनल एयरपोर्ट नजदीक आने लगा था। एलिस भी नीना की तरह भावुक होने लगी थी। कहने लगी,"हो सकता है,आप लोगों से कभी जीवन में मुलाक़ात हो जाएँ। हो सकता है,कभी मैं इंडिया आ जाऊँ और अगर आप कभी चीन आए तो मुझे अवश्य फोन कीजिएगा। उस समय मैं गाइड नहीं हूंगी। आप मेरे मेहमान होंगे और मैं आपकी मित्र।"
वक्त तेजी से स्मृतियों के पंख फैलाए उड़ता जा रहा था। धीरे-धीरे चीन की यादों का धुंधलका मस्तिष्क के किसी कोने में संस्कार बिन्दु बनने जा रहा था और किसी दूसरे कोने से पैदा हो रही थी मातृभूमि में लौटने की प्रगल्भ चाह। "जननी जन्मभूमि स्वर्गाद्पि गरीयसे"। स्वर्ग से भी बढ़कर है मेरी जन्मभूमि। जहां आजादी है,अपनापन है,अपना घर है, अपना परिवार है। सब अपने ही अपने हैं। चीन अवश्य अच्छा लगा, मगर मेरा भारत और ज्यादा अच्छा। भारत की देवभूमि में पाँव रखते ही ऐसा लगा कि समय करवट बदलेगा और सतयुग की तरह एक बार फिर भारत 'विश्वगुरु' बनकर सारे संसार में शांति,ज्ञान और मानवधर्म की स्थापना करेगा।



छठवाँ दिन: छठवाँ दिन (25.08.14)

छठवाँ दिन: छठवाँ दिन (25.08.14)

आज सुबह उठते ही,पता नहीं, क्यों भगवान बुद्ध की याद आने लगी। भारत के भगवान या चीन के भगवान? या फिर पूरे विश्व के? किस तरह भगवान बुद्ध की शिक्षाएँ  भारत की सीमाओं को पारकर चीन में आई होगी। किस तरह उनकी शिक्षाओं का अनुवाद हुआ होगा? प्राकृत भाषा,मागधी,अर्द्ध प्राकृत अथवा पाली, जो भी भाषा प्रचलन में रही होगी,उसका चीनी में अनुवाद होना और वहाँ के जन-मानस तक पहुंचना कम बड़ी उपलब्धि नहीं रही होगी। ये ही सारी बातें सोच रहा था कि एक मित्र ने डॉ. सच्चिदानंद द्वारा अनूदित सु-तुंग-पो की एक कविता 'अंधा आदमी जिसने सूर्य खोजा' के माध्यम से चीनी कविता की प्रणाली,शैली और विधि की तरफ मेरा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया।
''सूर्य कैसा होता है?''
अंधे आदमी ने जुलूस में नगाड़ा बजाते हुए आदमी से पूछा-
''चेंगीला की तरह''
अंधे आदमी ने चेंगीला बजाया
जब रात में मृत्यु की घोषणा करती
कांसे की घंटी बजी, उसने सोचा यह है सूर्य
''सूर्य कैसा होता है?''
अंधे आदमी ने जुलूस में मशाल थामे आदमी से पूछा
''मशाल की तरह''
अंधे आदमी ने मशाल छुई
शाम को जब किसी ने उसके चेहरे पर
गरम पानी उंडेल दिया, उसने सोचा यह है सूर्य
''सूर्य कैसा होता है?''
अगले दिन अंधे ने एक मछुआरे से पूछा
''समुद्र की तरह''
अंधा आदमी समुद्र में उतरा
मूँगे की चट्टानों ने उसके हाथ जलाये
समुद्री घोड़े उसे लेकर उड चले
वह समुद्र में परियों के किले में रहा
अंत में, शैवाल और सीपियों की फैलायी
खामोशी की सतह पर जब वह लेटा
उसने सोचा, अब मैं समझा, सूर्य कैसा होता है
लेकिन मैं नहीं दिखा सकता, उन्हे
जिनकी सिर्फ अपनी आँखें हैं।
जो समझा नहीं गया, वह समझाया जा सकता है
जो जाना है अनुभव से, कैसे बताया जा सकता है
आज भी वह अंधा आदमी, समुद्र सतह पर लेटा है।
जहाजियों के स्वागत के लिए।''
क्या चीन ने बुद्ध की शिक्षाएँ इसी तरह अनुभव की होगी ? रामायण,महाभारत में पढे अनेक मिथकों की तरह मेरे मन में कई चीनी मिथक-जगत की मिथ्याओं की ओर ध्यान जाने लगा। मैंने वहाँ के मिथक गत के बारे में यह पढ़ रखा था की आदि काल में स्वर्ग तथा धरती दोनों तक मनुष्य व देवताओं की एक जैसी पहुँच थी। एक छोटा देवता 'चियु' ने वहाँ के बड़े देवता 'शुग-ती' से मानव की सहायता से ताकत छिननी चाही। जब उसकी यह बगावत असफल हो गई तो मानव के लिए स्वर्ग व धरती के बीच एक रुकावट बना दी गई, लेकिन मानव के लिए ड्रेगन, बंदर तथा सूअर इस रुकावट से पार जा सकते थे। उन्हे जादूगर जानवर गिना गया। इसलिए चीनी मिथकों में हर नायक के साथ कोई ऐसा जानवर जरूर होता है। डॉ॰ देवदत्त पटनायक की पुस्तक "मिथक: हिन्दू आख्यानों को समझने का प्रयास" तथा "पशु" में में जीवन और मृत्यु,प्रकृति और संस्कृति,उत्कृष्टता और संभावना के विरोधाभासों के बीच जवाब हिन्दू प्रतिकों और रीति-रिवाजों की गुत्थियाँ सुलझाने का प्रयास किया है। कामधेनू,स्वर्ण-मृग,जामवंत,मनीकंठ,गिलहरी,मकरध्वज,वासुकी,वैनतेय गरुड आदि की कल्पना जिस तरह हिन्दू मिथोलोजी में की गई हैं,शायद उसी तरह मिथकों का चीनी साहित्य के ऊपर भी गहरा प्रभाव अवश्य रहा होगा।
 इस तरह चीनी-दर्शन शास्त्र की मैं भारतीय दर्शन से तुलना करने लगा। चीन की पृष्ठभूमि में ऐसे क्या कारण रहे होंगे,जिसकी वजह से वहाँ के दर्शन के ऊपर कफ्यूशियस,बौद्ध-धर्म तथा माओ-ताओवाद का अधिक प्रभाव पड़ा।  माओ की मार्क्सवादी क्रान्ति की सफलता के क्या कररण रहे होंगे? शायद वहाँ पहले से ही मानववाद की जड़ें मजबूत थीं। मानववाद चीन के अवचेतन में था। भारतीय दर्शन में भी पुरुष तथा प्रकृति का संकल्प पैदा हुआ था और तभी से ही मेरे मन में यह प्रश्न उभर रहा था कि 'चीन-यांग' के बीच भी एक द्वंदात्मक रिश्ता है। यह संकल्प अकार्यशीलता तथा कार्यशीलता, क्रिया व अक्रिया के साथ जुड़ा हुआ है। कई लोगों ने इसे प्रकृति व पुरुष के साथ भी जोड़ा है। औरत व मर्द दो धाराओं से भी जोड़ा। 'ताओवाद' भी 'चीन-यांग' फलसफा ही है।
बुद्ध ने चीन की संस्कृति को काफी प्रभावित किया। भारत के बुद्ध का चीन में होना इस बात का परिचायक है कि किसी जमाने में भारतीय संस्कृति ने अवश्य चीन को प्रभावित किया होगा अन्यथा शंघाई के म्यूजियम में बुद्ध की प्रतिमा नहीं रखी होती और न ही दीप,अगरबत्ती जलाकर पूजा आराधना की जाती। इंडिया की तरह यहा भी यूआन सिक्के चढ़ाए जाते हैं,साष्टांग दंडवत होकर प्रार्थना की जाती है। भगवान बुद्ध का पूरे चीन में जबरदस्त प्रभाव है। भगवान बुद्ध की शिक्षाएं यहां के जनमानस में आज भी ऊर्जा व प्रेरणा का काम करती हैं। चूंकि भगवान बुद्ध भारत के थे अत: भारतीय संस्कृति व सभ्यता के प्रति भी यहां के नागरिकों में विशिष्ट आदर है। चीनी यात्री ह्वेन सांग ने अपनी भारत यात्रा के बाद लिखित संस्मरणों में अनेक स्थानों पर भारतीय मूल्यों का चीन में प्रभाव होने की बात कही है। जेड बुद्ध मंदिर भी चीन के प्रमुख बौद्ध मंदिरों में से एक है। यहां सफेद जेड (विशिष्ट शैली का बहुमूल्य पत्थर) से बनी बुद्ध प्रतिमाएं हैं। एक प्रतिमा बैठी आकृति में और दूसरी लेटी हुई आकृति में हैं। अरुण कमल की कविता इस मंदिर को देखने के बाद
बुद्ध मंदिर में
केवल प्रार्थना है भगवन
कोई तृष्णा
कोई आकांक्षा नहीं
मुझे कुछ चाहिए नहीं प्रभों
इस काष्ठ आसन पर झुककर
अपनी सम्पूर्ण काया एक गांठ की तरह बांधता
 तुम्हें अर्पित कर रहा प्रभु –
तुम्हारी जन्मभूमि से आया यह मोहबिद्ध प्राणी
देखता हूँ तुम्हारा भरा हुआ दान-पात्र 
इतने सिक्के इतने युआन
मैं क्या डालूँ इस पात्र में प्रभु
रुपया डाल दूँ ?
मेरे पास एक नया नोट है पाँच का
स्वीकार करोगे बुद्ध?रुपया चलेगा चीन में ?
या केवल युआन ?
डॉलर तो हरगिज नहीं बुद्ध को!

यहां कुछ चीनी दैविक राजाओं की मूर्तियां भी दर्शनीय है। मंदिर दर्शन के बाद हम नॉनजिंग रोड पर गए,जहां बांस की कॉटन से तरह-तरह की घरेलू वस्तुएँ बनाई जाती है,जैसे टी-शर्ट,,टॉवल,रुमाल,फ्रॉक,स्कार्फ,टूथ-ब्रश,साबुन,कैंडी आदि। शो-रूम में वास्तुकला से संबन्धित कुछ चीजें भी रखी हुई थीं। सभी ने यथाशक्ति कुछ न कुछ खरीददारी अवश्य की।फिर दोपहर का भोजन और शंघाई म्यूजियम की ओर प्रस्थान। प्राचीन चीनी कला का सबसे बड़ा म्यूजियम। तरह-तरह के आर्टिफेक्ट। इस म्यूजियम में ग्यारह गैलेरी और तीन एक्जिबिशन हाल हैं। शंघाई म्यूजियम जहां अपनी और कलाओं के लिए प्रसिद्ध है चीन की कैलिग्राफी या हस्तलेखन की लिपियों का इतिहास भी यहीं संभाला हुआ है। यहाँ सबसे प्राचीन हस्तलिखित लिपि का जो नमूना पड़ा है, यह तीन हजार वर्ष पुराना है तथा यह लिपि जानवरों की हड्डियों तथा कछुकुम्मे की पीठ की हड्डी के ऊपर लिखी हुई है। एक अन्य हस्तलिखित लिपि ग्यारहवीं से सोलहवीं पूर्व ई. की है, जो कांसे के ऊपर है। इस प्रकार हस्तलिखित कई और नमूने वहाँ मौजूद हैं। कई ऐसी मोहरे हैं जो 221 पू. ई. की हैं, जब यहाँ 'शिन' शहंशाह थे जिन्होंने मोहरे की लिपि को बहुत सादा बनाया यह मोहरे बहुत सीधी-सादी व मजबूत हैं। इस प्रकार ऐसी हस्तलिखित लिपियों के नमूने भी पड़े हैं, जब इस लिपि को बड़ी तेजी के साथ लिखा जाने लगा। यह वह पड़ाव था जब पंक्ति की तरतीब का भी ख्याल रखा जाने लगा था। सातवीं से नौवीं शताब्दी तक इस लिपि में बहुत सुधार आए तथा इस समय में कई प्रसिद्ध लिपिकार भी सामने आए, जिनके नाम पर लिपि की व्यक्तिगत शैलियां प्रसिद्ध हुई। इस तरह इस अजायबघर में चीनी लिपि के अब तक के विकास को देखा जा सकता है। यह केवल लिपि के नमूने ही नहीं हैं, बल्कि इसमें कई प्राचीन कविताएँ तथा साहित्य के और नमूने भी लिखे गए हैं। कई लिखतें जो चीन के कई मंदिरों में लिखी गई हैं, उनकी नकल भी यहाँ संभाली हुई है।
       चीन के पिछले समय में कांसे पर कला के बहुत नमूने बनाए जाते थे। वह जिम्मेदार नमूने इस अजायबघर में सुरक्षित हैं। चीन का लकड़ी का फर्नीचर पहले समय में दूर-दूर तक जाता था, क्योंकि इस फर्नीचर के ऊपर बहुत बारीक नक्काशी, खुदाई की कला की जाती थी जैसे हमारी कश्मीरी  कला में कढ़ाई व लकड़ी के ऊपर नक्काशी का काम होता है। चीन में इस फर्नीचर को 'मिंग' तथा 'चिंग' फर्नीचर कहा जाता है। यह फर्नीचर अनगिनत रूपों में इस अजायबघर में सुरक्षित हैं।
       चीन की क्लासिकी कला में कपड़ों के नमूने तथा उन पर की गई कढ़ाई बहुत दूर-दूर तक प्रसिद्ध रही है, तथा प्राचीन समय में एशिया में इन कपड़ों का खूब व्यापार होता था। इस म्यूजियम  में वे सारे नमूने तो पड़े ही हैं, जिनके ऊपर भांति-भांति के ड्रेगन बड़ी बारीक कढ़ाई को विशेष कर राजशाही परिवार पसंद करते थे। इसी प्रकार पुराने चीनी बर्तन, आभूषण, मूर्तिकला को यहाँ विशेष तौर पर देखा जा सकता है। बुद्ध के पुराने बूत या अन्य बौद्ध मुद्राएँ तथा उन मुद्राओं में अंकित बौद्ध, जेड पत्थर से बनी अनेक प्रतिमाएँ तथा आभूषण, पुराने चीन की चित्रकला में अधिकतर फूलों तथा प्रकृति का चित्रण, चीन के अन्य राज्यों के राजाओं की शाही वस्तुएं, फर्नीचर लकड़ी पर किए खुदाई का काम आदि बहुत कुछ विस्तृत रूप से प्रदर्शित व यहाँ सुरक्षित पड़ा है, परंतु यह सब बातों की जानकारी के लिए यहाँ हमें किसी दुभाषिया की जरूरत न पड़ी।
म्यूजियम देखने के बाद हम चल पड़े हुयांगपू नदी में सैर करने के लिए। नदी के दोनों तरफ अभ्रांकष इमारतें और उन इमारतों पर रंग-बिरंगी झिलमिलाती रोशनियाँ। चीन यात्रा में ऑरियंट पर्ल टीवी टॉवर भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। इसे फोटोग्राफिक ज्वेलभी कहा जाता है। पुडोंग पार्क में बना यह टॉवर यांगपू पुल से घिरा है। दूर से देखने पर ऐसा लगता है जैसे दो ड्रेगन मोतियों से अठखेलियां कर रहे हों। 468 मीटर ऊंचा यह टॉवर विश्व का तीसरा सबसे ऊंचा टॉवर है। रात की रोशनी में इसकी आभा देखते ही बनती है। बहुत बड़े जहाज में हमारे साथ-साथ जगह-जगह के लोगों का जुटना। ऊपर में सतरवें एशियन खेलकूदों को प्रमोट करने के लिए दक्षिण कोरिया के छात्रों का एक दल जहाज के ऊपरी माले पर संगीत की धुन पर थिरक रहा था और उनके नृत्य में वे शामिल कर रहे थे हाथ पकड़-पकड़कर डॉ जय प्रकाश मानस जी को,डॉ सुधीर शर्मा जी को,मुमताज़ और गिरीश पंकज को बारी-बारी। हमारे ग्रुप की बच्ची स्मार्की पटनायक उन बच्चों के डांस का एक हिस्सा बन गई। जीवन में नृत्य है, जीवन में संगीत है। यद्यपि बरसात हो रही थी ,मगर इतनी चमकदार रोशनी चारों तरफ मानो चाँदनी रात हो। मुझे ओडिया भाषा के महान कवि मायाधर मानसिंह की प्रसिद्ध कविता 'महानदी में ज्योत्स्ना विहार'  याद आनी लगी। हुयांगपू मेरे लिए महानदी बन गई और वह तटिनी "बाली-यात्रा" का प्रतीक।
पत्थर के घर में, अंधेरे में, रहने वाला मैं, जननी !
पता नहीं था, तुम्हारे अद्भुत रूप की लीला ,हे धरणी !
चांदनी रात में महानदी में चलाने से पहले  तरणी

आहा ! कितनी विपुल शोभा मेरी आँखों के सामने
कैसे करुँ मैं वर्णन मेरे आकर्षक अनुभव का  ?
चौंधिया गई मेरी आँखें इस धवल-चाँदनी में
बंद हो गया मेरा पराभव मुँह इस चपल-चाँदनी में

रजनी- वधू  सफेद चादर की तरह
 
फैला रही चाँदनी  दिगचक्र तक
नीचे धरती-तल की प्राकृतिक मधुरता
 
तुम्हारे संस्पर्श से और मधुर ।

आकाश के समान महानदी का जल
चंद्रिका चुंबन से धवल -चपल
तरल दर्पण जैसे बिछा दिया हो किसी ने
देखेंगे उसमे अपने बदन, नभ की सुहागिनें ।

दूरवाही नाविक का सुगम संगीत
छूता नदी का वक्ष अक्षत
 
चांदनी में नदी के पानी का किनारों से टकराना
मानो लाखों चांदी के फूलों का एक साथ खिल जाना

इस भव्य चित्रगृह में मैं एक दीन-हीन अतिथि
देख रहा हूँ मुग्ध होकर महिमा मंडित
सोचता हूँ ,हो जाऊं विलीन इस चांदनी में
और पान करूँ अमृतरस का इस स्रोत में ।









पांचवा अध्याय: पांचवा दिन (24.08.14)

पांचवा अध्याय: पांचवा दिन (24.08.14)


वेलकम, सृजनगाथा डॉट कॉम इन शंघाई! हार्दिक स्वागत आप सभी का। शंघाई मानो कह रहा हो हम सभी से। विश्व का एक बहुत बड़ा व्यापारिक केंद्र। नीना की जगह ले ली थी गाइड 'एलिस' ने। 'एलिस' का चीनी नाम कुछ और था नीना की तरह। टूर के प्रोग्राम के मुताबिक वह हमें वर्ल्ड फाइनेंशियल हब, सिल्क शॉप और मेगलेव ट्रेन दिखाने के लिए ले जा रही थी। शायद एलिस को भारत के पर्यटन स्थानों,रीति-रिवाजों,रहन-सहन के तरीकों,खान-पान की आदतों की अच्छी जानकारी थी। यह बाद में पता चला कि वह भारत में दो बार घूम आई थी। तभी तो उस बस में कितने आत्म-विश्वास के साथ चीन और भारत की तुलना कर थी वह,"शंघाई पहले मछुआरों का एक गाँव था, पर प्रथम अफ़ीम युद्ध के बाद अंग्रेज़ों ने इस स्थान पर अधिकार कर लिया और यहां विदेशियों के लिए एक स्वायत्तशासी क्षेत्र का निर्माण किया, जो 1930 तक अस्तित्व में रहा और जिसने इस मछुआरों के गाँव को उस समय के एक बड़े अन्तर-राष्ट्रीय नगर और वित्तीय केन्द्र बनने में सहायता की।
      1949 में साम्यवादी अधिग्रहण के बाद उन्होंने विदेशी निवेश पर रोक लगा दी और अत्यधिक कर लगा दिया। 1992  से यहां आर्थिक सुधार लागू किए गए और कर में कमी की गई, जिससे शंघाई ने अन्य प्रमुख चीनी नगरों जिनका पहले विकास आरम्भ हो चुका था जैसे शेन्झेन और गुआंग्झोऊ को आर्थिक विकास में पछाड़ दिया। 1992 से ही यह महानगर प्रतिवर्ष 9-15% की दर से वृद्धि कर रहा है, पर तीव्र आर्थिक विकास के कारण इसे चीन के अन्य क्षेत्रों से आने वाले अप्रवासियों और सामाजिक असमानता की समस्या से इसे जूझना पड़ रहा है।इस महानगर को आधुनिक चीन का ध्वजारोहक नगर माना जाता है और यह चीन का एक प्रमुख सांस्कृतिक, व्यवसायिक, और औद्योगिक केन्द्र है। 2005 से ही शंघाई का बन्दरगाह विश्व का सर्वाधिक व्यस्त बन्दरगाह है। पूरे चीन और शेष दुनिया में भी इसे भविष्य के प्रमुख महानगर के रूप में माना जाता है।
      आपके इंडिया में जहां लोग मंदिरों,मस्जिदों व गिरजाघरों में पूजा-अर्चना करते हैं, वैसा यहाँ बिलकुल नहीं है। चीन का कोई धर्म नहीं है। केवल एक ही धर्म है,पैसे कमाना और देश का विकास करना। आपके वहाँ धार्मिक स्थानों में जाने के लिए कोई शुल्क नहीं लगता,मगर यहाँ लगता है। यहाँ सरकारी म्यूजियमों में जाने के लिए कोई शुल्क नहीं लगता, आपके वहाँ लगता है। हैं न मूलभूत अंतर ? हमारे यहाँ,आपने बीजिंग से शंघाई तक देखा होगा,सब जगह औरतें काम करती हैं, मगर आपके वहाँ आदमी,जबकि आपकी औरतें हाऊसवाइफ। यहाँ पूरा व्यतिक्रम या तो आदमी-औरत दोनों काम करते हैं या फिर केवल औरत जबकि पति हाऊस-हसबेंड ।"
'हाऊस-हसबेंड' का नाम सुनते ही सारी बस खिलखिलाकर हंस पड़ी। कितनी विपरीत है चीन की संस्कृति! यह सच है, शंघाई जैसे शहर में अगर पति-पत्नी दोनों नहीं कमाएंगे तो जीवन जीना दूभर हो जाएगा।
एलिस ने कहना जारी रखा," जैसा कि आप जानते होंगे,चीन में प्रतिवर्ष एक छोटा परिवर्तन और हर तीसरे साल एक बहुत बड़ा परिवर्तन देखने को मिलता है।यह चीन के गवर्नमेंट की पॉलिसी है। ... अब हम पहुँचने जा रहे है वर्ल्ड फाइनेंशियल हब के इर्द-गिर्द। जहां आप लिफ्ट से 423 मीटर की दूरी मात्र 47 सेकंड में तयकर चौरानवें मंजिल पर पहुँचकर शंघाई का विहंगम दृश्य देख सकते हैं। यह इमारत सौ मंजिल की है,लगभग 474 मीटर ऊंची। अब आप उतरकर फोटोग्राफी का आनंद ले सकते है।"
बस एक बड़े गार्डन के पास जाकर रुक गई। हम सभी नीचे उतरकर आस-पास के सारे नजारों का अवलोकन करने लगे। पाइपनुमा काँच की बनी बिल्डिंग पर चींटी जैसे कुछ लोग मरम्मत का काम कर रहे थे। वे दूर से ऐसे दिखाई दे रहे थे,जैसे काले कपड़े पहने कुछ स्पाइडरमैन काँच की दीवारों पर अपने हाथ से धागा फेंककर मकडजाल बना रेंगते-रेंगते ऊपर की ओर बढ़ रहे हो। आस-पास की गगनचुंबी इमारतों के अरण्य का दृश्य बहुत ही मनोरम दिखाई दे रहा था। ऐसा लग रहा था,चीनी लोगों ने शंघाई को स्वर्ग बनाने का ठान लिया हो। बचपन में मुझे कभी मुंबई,कोलकाता,चैन्ने और दिल्ली महानगर लगते थे,मगर शंघाई को देखने के बाद लगा अभी बहुत कुछ बाकी है।
सोचते-सोचते एक निमिष में हम पहुँच गए वर्ल्ड फाइनेंशियल हब की 94वीं फ्लोर पर। शंघाई नगर के पुडौंग जिले में स्थित एक गगनचुम्बी इमारत है यह। यह एक मिश्रित उपयोग की इमारत है जिसके भीतर होटल, कार्यालय, सम्मेलन कक्ष, प्रेक्षण डॅक, और शॉपिंग मॉल इत्यादि हैं। 14 सितंबर 2007 के दिन इस इमारत ने अपनी 492 मीटर की ऊँचाई प्राप्त कर ली थी और उस समय यह विश्व की दूसरी सबसे ऊँची इमारत थी। इस इमारत में कुल 101 तल हैं और यह अभी भी चीन की सबसे ऊँची इमारत है। यह इमारत 28 अगस्त 2008को दैनिक कामकाज के लिए खोल दी गई थी, और इसका प्रेक्षण डॅक दो दिन बाद खोला गया। अपने डिज़ाइन के लिए इस इमारत को बहुत सराहा गया है और वास्तुकारों द्वारा इसे वर्ष 2008  की सर्वश्रेष्ठ पूर्णनिर्मित इमारत स्वीकृत किया गया था ।  ..... कोई सुंदर सपने से कम नहीं। तकनीकी उत्कृष्टता का एक अनुपम उदाहरण। 'सती सावित्री' और 'डिवाइन लाइफ' के रचियता  महर्षि अरविंद ने सही कहा था, इट इज अवर जर्नी फ्राम मेन टू सुपरमेन। मनुष्य हमेशा 'सुपरमेन' बनना चाहता है। चार्ल्स डार्विन के विकासशीलता का सिद्धान्त भी तो यही दर्शाता है। क्या चीन का यह विकास कम बड़ा जादू है ! काँच की दीवारों से दिखाई दे रहा है सारा शंघाई शहर,बहुत ही खूबसूरत! इधर ओल्ड शंघाई तो उधर न्यू शंघाई, बीच में हूयांगपू नदी मानो दो भाइयों की संपति का बंटवारा कर रही हो। न्यू शंघाई में तरह-तरह की स्थापत्य कला लिए अभ्रन्कष इमारतें। यही तो आभिजात्य और वैभव है वहाँ के निवासियों का। अगर विवेकानंद जिंदा होते तो शायद वह भी यह ही कहते, ये  इमारतें चीन के लोगों का कर्मयोग है। कुशलता से किया हुआ कर्म ही तो योग है। "योग कर्मसु कौशलं"। हमारे सभी साथी अपना फोटो खींचने या खींचवाने में मग्न थे। अब समय हो चुका नीचे उतरने का। देखते-देखते एक घंटा कब व्यतीत हुआ ,पता भी नहीं चला।
अब बस ने रुख किया सिल्क शॉप की तरफ। एलिस कह रही थी ,चीन में दो प्रकार के कोकून पाए जाते है, एक बड़ा तो दूसरा छोटा। जबकि आपके भारत में छोटे प्रकार का ही कोकून मिलता है। पता नहीं, हर बात में वह भारत से तुलना क्यों कर रही थी ? सिल्क की यह दूकान बहुत बड़ी थी, जहां रज़ाई,तकिये,ओढ़ने के वस्त्र तैयार किए जा रहे थे। रेशम बनाने की दूकान में पूरा डिमोन्स्ट्रेशन दिखाया गया। यहाँ पर जिन्हें जो-जो खरीदना था,ख़रीददारी की। अब हमारा कारवां चल पड़ा,लंच करने के लिए। मगर एलिस ने कहा, बेहतर होगा आप लंच से पहले मेगलेव ट्रेन की सवारी कर लेते । मेगलेव ट्रेन चलने का समय सन्निकट था।
मेगलेव ट्रेन का विस्तृत रूप होता है "मैगनैटिक लेवियशन" सिद्धान्त पर काम करने वाली ट्रेन। यह लोंगयांग रोड स्टेशन से पुडोंग इन्टरनेशनल एयरपोर्ट स्टेशन तक तीस किलोमीटर की दूरी मात्र आठ मिनट में तय करती है। फिलहाल यह पायलट प्रोजेक्ट है और 'नो प्रॉफ़िट नो लॉस' में चल रहा है। शंघाई सरकार इसे बंद करने के बारे में सोच रही है। सारे डिब्बों में स्पीड इंडिकेटर लगे हुए थे, अधिकतम स्पीड 431 किलोमीटर प्रति घंटा देखी गई,जबकि सापेक्ष गति 700 किलोमीटर प्रति घंटा। हैं न, अचरज की बात ? सेवाशंकर अग्रवाल ने तो एक वीडियो तैयार कर लिया। बाद में सबने उसे अपने अपने सोशल मीडिया ग्रुप पर अपलोड कर दिया। किसी ने कामेंट किया, जितनी ज्यादा गति ,उतनी ज्यादा प्रगति । तो किसी ने लिखा, सारे विकास की जड़ है टेक्नॉलॉजी का सही इस्तेमाल। गिनीज़ बुक में नाम रखने वाली अधिकतम स्पीड वाली मेगलेव ट्रेन में बैठना अपने आप में एक बहुत बड़ा गौरव था।
डॉ रंजना अरगड़े ने चुम्बकीय क्षेत्र में चलने वाली ट्रेन के बारे में जानना चाहा," कैसे चलती है यह ट्रेन ?"
" मेगलेव ट्रेन विद्युत चुंबकीय सिद्धांत पर चलती हैं। चुंबकीय प्रभाव के चलते ये पटरी से थोड़ा ऊपर होती हैं और इसी कारण इनकी रफ़्तार परंपरागत ट्रेनों से अधिक होती है। ब्रिटेन ने सबसे पहले मेगलेव ट्रेन विकसित की थी। फिलहाल दुनिया में सिर्फ़ चीनी शहर शंघाई में ही यात्री मेगलेव ट्रेन के सफर का आनंद उठा सकते हैं। " मैंने अपनी जानकारी के अनुसार उत्तर दिया ,
 " शंघाई में मेगलेव ट्रेन का ट्रैक तैयार करने में 6 करोड़ 30 लाख डॉलर ख़र्च हुए हैं। जापान का कहना है कि वह वर्ष 2025 तक चुंबकीय प्रभाव से चलने वाली पहली 500 किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से दौड़ने वाली पहली ट्रेन का विकास करेगा, जो राजधानी टोक्यो और नागोया शहर के बीच दौड़ेगी। जबकि हकीकत यह है कि ब्रिटेन में ट्रेन संचालित करने वाले नेटवर्क रेल की फिलहाल वहाँ मेगलेव ट्रेन चलाने की योजना नहीं है। ब्रिटेन में कभी दुनिया की पहली व्यवसायिक मेगलेव ट्रेन चलती थी। वर्ष 1984 से 1995 के बीच यह ट्रेन यात्रियों को बर्मिंघम हवाई अड्डे से नजदीकी रेलवे स्टेशन तक ले जाती थी। लेकिन 11 साल के सफर में कई बार इसकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल उठे और आखिरकार इसे पारंपरिक व्यवस्था से बदल दिया गया। नेटवर्क रेल ने मेगलेव ट्रेन शुरू करने और इसके संचालन पर आने वाले ख़र्च को लेकर भी इसे फिर शुरू करने से इनकार किया है।" मेगलेव ट्रेन के बाद रेस्टोरेन्ट 'जी वाटर फ्रंट होटल' में भारतीय भोजन का रसास्वादन।